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128 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


लें कोल्हू और बना लें खांड़। अगले साल तक मिल तैयार हो जायगी, सारी ऊख खड़ी बिक जायगी। गुड़ और खांड़ के भाव चीनी मिलेगी, तो हमारा गुड़ कौन लेगा? उसने एक कटोरे में गुड़ की कई पिंडियां लाकर दीं। गोबर ने गुड़ खाया, पानी पिया। तमाखू तो पीते होगे? गोबर ने बहाना किया-अभी चिलम नहीं पीता। बुड्ढे ने प्रसन्न होकर कहा-बड़ा अच्छा करते हो भैया। बुरा रोग है। एक बेर पकड़ ले, तो जिंदगी-भर नहीं छोड़ता।

इंजन को कोयला-पानी भी मिल गया। चाल तेज हुई। जाड़े के दिन, न जाने कब दोपहर हो गया। एक जगह देखा, एक युवती एक वृक्ष के नीचे पति से सत्याग्रह किए बैठी थी। पति सामने खड़ा उसे मना रहा था। दो-चार राहगीर तमाशा देखने खड़े हो गए थे। गोबर भी खड़ा हो गया। मानलीला से रोचक और कौन जीवन-नाटक होगा। युवती ने पति की ओर घूरकर कहा-मैं न जाऊंगी, न जाऊंगी, न जाऊंगी।

पुरुष ने जैसे अल्टीमेटम दिया-न जायगी?

'न जाऊंगी।'

'न जायगी?'

'न जाऊंगी।'

पुरुष ने उसके केश पकड़कर घसीटना शुरू किया। युवती भूमि पर लोट गई।

पुरुष ने हारकर कहा-मैं फिर कहता हूं, उठकर चल।

स्त्री ने उसी दृढ़ता से कहा-मैं तेरे घर सात जनम न जाऊंगी, बोटी-बोटी काट डाल।

'मैं तेरा गला काट लूंगा।'

'तो फांसी पाओगे।'

पुरुष ने उसके केश छोड़ दिए और सिर पर हाथ रखकर बैठ गया। पुरुषत्व अपनी चरम सीमा तक पहुंच गया। उसके आगे अब उसका कोई बस नहीं है।

एक क्षण में वह फिर खड़ा हुआ और परास्त होकर बोला-आखिर तू क्या चाहती है?

युवती भी उठ बैठी और निश्चल भाव से बोली-मैं यही चाहती हूं, तू मुझे छोड़ दे।

'कुछ मुंह से कहेगी, क्या बात हुई?'

'मेरे माई-बाप को कोई क्यों गाली दे?'

'किसने गाली दी, तेरे माई-बाप को?'

'जाकर अपने घर में पूछ।'

'चलेगी तभी तो पूछूंगा?'

'तू क्या पूछेगा? कुछ दम भी है। जाकर अम्मां के आंचल में मुंह ढांककर सो। वह तेरी मां होगी। मेरी कोई नहीं है। तू उसकी गालियां सुन। मैं क्यों सुनूं? एक रोटी खाती हूं, तो चार रोटी का काम करती हूं। क्यों किसी की धौंस सहूं? मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी तो नहीं जानती।'

राहगीरों को इस कलह में अभिनय का आनंद आ रहा था, मगर उसके जल्द समाप्त होने की कोई आशा न थी। मंजिल खोटी होती थी। एक-एक करके लोग खिसकने लगे। गोबर को पुरुष की निर्दयता बुरी लग रही थी। भीड़ के सामने तो कुछ न कह सकता था। मैदान खाली हुआ तो बोला-भाई, मर्द और औरत के बीच में बोलना तो न चाहिए, मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी नहीं होती।