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गुप्त धन
 

से हिलकोरें खाती, शोर करती हुई लहरों को रौंदती चली जाती थी। शायद जल-देबियों ने उसकी निर्बलता पर तरस खाकर उसे अपने आँचलों में छुपा लिया था।

जब तक वह दिया झिलमिलाता और टिमटिमाता, हमदर्द लहरों से झकोरे लेता दिखायी दिया मोहिनी टकटकी लगाये खोयी-सी उसकी तरफ़ ताकती रही। जब वह आँख से ओझल हो गया तो वह वेचैनी से उठ खड़ी हुई और बोली-मैं किनारे पर जाकर उस दिये को देखूगी।

जिस तरह हलवाई की मनभावन पुकार सुनकर बच्चा घर से बाहर निकल पड़ता है और चाव-भरी आंखों से देखता और अधीर आवाजों से पुकारता उस नेमत के थाल की तरफ़ दौड़ता है, उसी जोश और चाव के साथ मोहिनी नदी के किनारे चली।

बाग़ से नदी तक सीढ़ियां बनी हुई थीं। हम तेजी के साथ नीचे उतरे और किनारे पहुँचते ही मोहिनी ने खुशी के मारे उछलकर जोर से कहा—अभी है! अभी है! देखो बह निकल गया!

वह बच्चों का-सा उत्साह और उद्विग्न अधीरता जो मोहिनी के चेहरे पर उस समय थी, मुझे कभी न भूलेगी। मेरे दिल में सवाल पैदा हुआ, उस दिये से ऐसा हार्दिक संबंध, ऐसी बिह्वलता क्यों? मुझ जैसा कवित्वशून्य व्यक्ति उस पहेली को ज़रा भी न बूझ सका।

मेरे हृदय में आशंकायें पैदा हुईं। अँधेरी रात है, घटायें उमड़ी हुईं, नदी वाढ़ पर, हवा तेज, यहां इस वक्त ठहरना ठीक नहीं। मगर मोहिनी! वह चाव-भरे भोलेपन की तस्वीर, उसी दिये की तरफ़ आँखें लगाये चुपचाप खड़ी थी और वह उदास दिया ज्यों का त्यों हिलता-मचलता चला जाता था, न जाने कहाँ किस देश को!

मगर थोड़ी देर के बाद वह दिया आंखों से ओझल हो गया। मोहिनी ने निराश स्वर में पूछा—गया! बुझ गया होगा?

और इसके पहले कि मैं कुछ जवाव दूं वह उस डोंगी के पास चली गई, जिस पर बैठकर हम कभी-कभी नदी की सैरें किया करते थे, और प्यार से मेरे गले लिपटकर बोली—मैं उस दिये को देखने जाऊंगी, मैं देखूगी कि वह कहां जा रहा है, किस देश को।

यह कहते-कहते मोहिनी ने नाव की रस्सी खोल ली। जिस तरह पेड़ों की डालियाँ तूफ़ान के झोकों से झकोले खाती हैं उसी तरह यह डोंगी डावांडोल हो रही थी। नदी का वह डरावना विस्तार, लहरों की वह भयानक छलाँगें, पानी की वह गरजती हुई आवाज, इस खौफनाक अंधेरे में इस डोंगी का बेड़ा क्योंकर पार होगा! मेरा