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विक्रमादित्य का तेगा
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चार बजे होंगे जब श्यामा की बारी आयी तो उपस्थित लोग सम्हल बैठे। चाव के मारे लोग आगे खिसकने लगे । खुमारी से भरी हुई आँखें चौंक पड़ी। वृन्दा महफ़िल में आयी और सर झुकाकर खड़ी हो गयी। उसे देखकर लोग हैरत में आ गये। उसके शरीर पर न आबदार गहने थे, न खुशरंग, भड़कीली पेशवाज । वह सिर्फ एक गेरुए रंग की साड़ी पहने हुए थी। जिस तरह गुलाव की पंखुरी पर डूबते हुए सूरज की सुनहरी किरन चमकती है, उसी तरह उसके गुलाबी होंठों पर मुस्कराहट झलकती थी। उसका आडम्बर से मुक्त सौन्दर्य अपने प्राकृतिक वैभव की शान दिख रहा था। असलो सौन्दर्य बनाव-सिंगार का मोहताज नहीं होता। प्रकृति के दर्शन से आत्मा को जो आनन्द प्राप्त होता है वह सजे बागीचों की सैर से मुमकिन नहीं। वृन्दा ने गाया—

सब दिन नाहीं बराबर जात।

यह गीत इससे पहले भी लोगों ने सुना था मगर इस वक्त का-सा असर कभी दिलों पर नहीं हुआ था। किसी के सब दिन वराबर नहीं जाते यह कहावत रोज सुनते थे। आज उसका मतलब समझ में आया। किसी रईस को वह दिन याद आया जब खुद उसके सिर पर ताज था, आज वह किसी का गुलाम है। किसी को अपने बचपन की लाड़-प्यार की गोद याद आयी, किसी को वह जमाना याद आया, जव वह जीवन के मोहक सपने देख रहा था। मगर अफ़सोस अब वह सपना तितर-बितर हो गया। वृन्दा भी बीते हुए दिनों को याद करने लगी। एक दिन वह था कि उसके दरवाजे पर अताइयों और गानेवालों की भीड़ रहती थी और दिल में खुशियों की। और आज, आह आज! इसके आगे वृन्दा कुछ न सोच सकी। दोनों हालतों का मुक़ाबिला बहुत दिल तोड़नेवाला था, निराशा से भर देनेवाला। उसकी आवाज़ भारी हो गयी और रोने से गला बैठ गया।

महाराजा रनजीतसिंह श्यामा के तर्ज व अन्दाज़ को गौर से देख रहे थे। उनकी तेज़ निगाहें उसके दिल में पहुँचने की कोशिश कर रही थीं। लोग अचंभे में पड़े हुए थे कि क्यों उनकी ज़वान से तारीफ़ और कद्रदानी की एक बात भी न निकली। वह खुश न थे, उदास भी न थे, वह खयाल में डूबे हुए थे। उन्हें हुलिये से साफ़ पता चल रहा था कि यह औरत ड्रगिज़ अपनी अदाओं को बेचनेवाली औरत नहीं है। यकायक वह उठ खड़े हुए और बोले—श्यामा, वृहस्पति को मैं फिर तुम्हारा गाना सुनूंगा।