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भी ज्यादा उर्दू पत्र-पत्रिकाओं को फ़ाइलें––आसानी से नहीं मिलतीं। अकसर खण्डित मिलती हैं। कम जाने-माने और साप्ताहिक-पाक्षिक पत्रों को तो प्रायः नहीं मिलतीं। उदाहरण के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी के 'प्रताप' की फ़ाइल का न मिलना बड़े ही कष्ट की बात है। मेरा विश्वास है कि उसमें मुंशीजी की कुछ कहानियाँ मिलनी चाहिए। इतना तो निश्चित है कि उसमें मुंशीजी की पहली हिन्दी कहानी है। एक चिट्ठी में इसका संकेत मिलता है। लेकिन वह कहानी कौन-सी है, कैसी है, किसी संग्रह में संकलित होकर प्रकाशित होती रही है या नहीं––यह सब कुछ भी पता नहीं चल सकता जब तक वह फ़ाइल देखने को न मिले। और कहीं न मिले, 'प्रताप' कार्यालय में ज़रूर मिलेगी, इस विश्वास से मैं वहाँ गया, पर निराश होना पड़ा। पर मैं पूरी तरह निराश नहीं हूँ और सच तो यह है कि पुराने पत्रों की छानबीन अभी उस आत्यंतिक लगन से की भी नहीं जा सकी है जो कि अपेक्षित है। मुझे यक़ीन है कि अगले कुछ बरसों में मुझे या मेरे किसी और उत्साही भाई को और भी कुछ कहानियाँ मिलेंगी।

उर्दू से प्राप्त कहानियों को ज्यों का त्यों छाप देना हिन्दी पाठकों के प्रति अन्याय समझकर मैंने उनको हिन्दी का जामा पहनाया है––मुंशीजी की अपनी हिन्दी का, यानी जहाँ तक मुझसे हो सका। कहानी की आत्मा ही नहीं, भाषा और शैली की भी रक्षा करने के इस प्रयत्न में मुझे कहाँ तक सफलता मिली है या नहीं मिली, इसका निर्णय तो आप करेंगे, पर मुझे संतोष है कि मैंने अपनी ओर से इसमें कुछ उठा नहीं रखा।

उर्दू संग्रहों में मुंशीजी की दो कहानियाँ 'बरात' और 'क़ातिल की माँ' ऐसी मिलीं जो हिन्दी में नहीं मिलती। मुझे उनको भी शामिल कर लेना चाहिए था। लेकिन मैंने उनको छोड़ देना ही ठीक समझा क्योंकि वही या लगभग वही कहानियाँ, बहुत थोड़े हेर-फेर के साथ, श्रीमती शिवरानी प्रेमचंद के कहानी संग्रह 'नारी हृदय' में मिलती है। उनके शीर्षक क्रमशः 'वर-