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गुप्त धन
 


पालकी पर हवा खाने निकलती है तो उस पर चारों तरफ़ से फूलों की बौछार होने लगती है! महाराज रनजीतसिंह को काबुल से लौटे हुए तीन महीने गुजर गये, मगर अभी तक विजय की खुशी में कोई जलसा नहीं हुआ। वापसी के बाद कई दिन तक तो महाराज किसी कारण से उदास थे, उसके बाद उनके स्वभाव में यकायक एक बड़ा परिवर्तन आया, उन्हें काबुल की विजय की चर्चा से घृणा-सी हो गयी। जो कोई उन्हें इस जीत की बधाई देने जाता उसकी तरफ से मुँह फेर लेते थे। वह आत्मिक उल्लास जो मौजा माहनगर तक उनके चेहरे से झलकता था, अब वहाँ न था। काबुल को जीतना उनकी जिन्दगी की सबसे बड़ी आरजू थी। वह मोर्चा जो एक हजार साल तक हिन्दू राजाओं को कल्पना से बाहर था, उनके हाथों सर हुआ। जिस मुल्क ने हिन्दोस्तान को एक हजार बरस तक अपने मातहत रक्खा वहाँ हिन्दू कौम का झण्डा रनजीतसिंह ने उड़ाया। ग़ज़नी और काबुल की पहाड़ियाँ इन्सानी खून से लाल हो गयीं, मगर रनजीतसिंह खुश नहीं हैं। उनके स्वभाव की कायापलट का भेद किसी की समझ में नहीं आता। अगर कुछ समझती है तो वृन्दा समझती है।

तीन महीने तक महाराज की यही कैफियत रही। इसके बाद उनका मिजाज अपने असली रंग पर आने लगा। दरबार की भलाई चाहनेवाले इस मौके के इन्त-जार में थे। एक रोज़ उन्होंने महाराज से एक शानदार जलसा करने की प्रार्थना की। पहले तो वह बहुत क्रुद्ध हुए मगर आखिरकार मिज़ाज समझनेवालों की बातें अपना काम कर गयीं।

जलसे की तैयारियाँ बड़े पैमाने पर की जाने लगीं। शाही नृत्यशाला की सजावट होने लगी। पटना, बनारस, लखनऊ, ग्वालियर, दिल्ली और पूना की नामी वेश्याओं को सन्देश भेजे गये । वृन्दा को भी निमन्त्रण मिला। आज एक मुद्दत के बाद उसके चेहरे पर मुस्कराहट की झलक दिखायी दी।

जलसे की तारीख निश्चित हो गयो । लाहौर की सड़कों पर रंग-बिरंगी झंडियाँ लहराने लगीं। चारों तरफ से नवाब और राजे बड़ी शान के साथ सज-सजकर आने लगे। होशियार फर्राशों ने नृत्यशाला को इतने सुन्दर ढंग से सजाया था कि उसे देखकर लगता था बिलास का विश्रामस्थल है।

शाम के वक्त शाही दरबार जमा । महाराजा साहब सुनहरे राजसिंहासन पर शोभायमान हुए। नवाब और राजे, अमीर और रईस, हाथी-घोड़ों पर सवार अपनी सजधज दिखाते हुए एक जलूस बनाकर महाराज की कदमबोसी को चले।