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गुप्त धन
 

चारों तरफ़ गहरा सन्नाटा छाया हुआ है और इन विचारों को जन्म देनेवाले सन्नाटे में वृन्दा जमीन पर बैठी हुई मद्धिम स्वरों में गा रही है—

बता दे कोई प्रेमनगर की डगर।

वृन्दा की आवाज़ में लोच भी है और दर्द भी। उसमें बेचैन दिल को तसकीन देनेवाली ताक़त भी है और सोये हुए भावों को जगा देने की शक्ति भी। सुबह के वक्त पूरब की गुलाबी आभा में सर उठाये हुए फूलों से लदी हुई डाली पर बैठकर गानेवाले वुलबुल की चहक में भी यह घुलावट नहीं होती। यह बह गाना है जिसे सुनकर अकलुष आत्माएँ सिर धुनने लगती हैं। उसकी तान कानों को छेदती हुई जिगर में जा पहुँचती है—

बता दे कोई प्रेमनगर की डगर!
मैं बौरी पग-पग पर भटकूँ, काहू की कुछ नाहीं खबर।
बता दे कोई प्रेमनगर की डगर।

यकायक किसी ने दरवाजा खटखटाया और कई आदमी पुकारने लगे—किसका मकान है, दरवाजा खोलो।

वृन्दा चुप हो गयी! प्रेमसिंह ने उठकर दरवाज़ा खोल दिया। दरवाजे के सहन में सिपाहियों की एक भीड़ थी। दरवाजा खुलते ही कई सिपाही देहलीज़ में घुस आये और बोले—तुम्हारे घर में कोई गानेवाली रहती है, हम उसका गाना सुनेंगे।

प्रेमसिंह ने कड़ी आवाज में कहा—हमारे यहाँ कोई गानेवाली नहीं है।

इस पर कई सिपाहियों ने प्रेमसिंह को पकड़ लिया और बोले—तेरे घर से गाने की आवाज़ आती थी।

एक सिपाही—बताता क्यों नहीं रे, कौन गा रहा है?

प्रमसिंह—मेरी लड़की गा रही थी। मगर वह गानेवाली नहीं है।

सिपाही—कोई हो, हम तो आज गाना सुनेंगे।

गुस्से से प्रेमसिंह काँपने लगा, होंठ चबाकर बोला—यारो हमने भी अपनी जिन्दगी फ़ौज ही में काटी है मगर कभी........

इस हंगामे में प्रेमसिंह की बात किसी ने न सुनी। एक नौजवान जाट ने जिसकी आँखें नशे से लाल हो रही थीं, ललकारकर कहा—इस बुड्ढे की मूंछे उखाड़ लो।

वृन्दा आँगन में पत्थर की मूरत की तरह खड़ी यह कैफियत' देख रही थी। जब उसने दो सिपाहियों को प्रेमसिंह की मूंछ पकड़कर खींचते देखा तो उससे न