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शोक का पुरुस्कार
३३
 


लीला—मैंने ही।

मैं—क्यों? तुमने मुझे यह धोखा क्यों दिया? शायद तुम अन्दाजा नहीं कर सकतीं कि मैंने तुम्हारे शोक में कितनी पीड़ा सही है।

मुझे उस वक्त एक अनोखा गुस्सा आया—यह फिर मेरे सामने क्यों आ गयी! मर गयी थी तो मरी ही रहती!

लीला—इसमें एक गुर था, मगर यह बातें तो फिर होती रहेंगी। आओ इस वक्त तुम्हें अपनी एक लेडी फ्रेण्ड से इण्ट्रोड्यूस कराऊँ, वह तुमसे मिलने की बहुत इच्छुक है।

मैंने अचरज से पूछा—मुझसे मिलने की! मगर लीलावती ने इसका कुछ जवाव न दिया और मेरा हाथ पकड़कर गाड़ी के सामने ले गयी। उसमें एक युक्ती हिन्दुस्तानी कपड़े पहने बैठी हुई थी। मुझे देखते ही उठ खड़ी हुई और हाथ बढ़ा दिया। मैंने लीला की तरफ़ सवाल करती हुई आँखों से देखा।

लीला—क्या तुमने नहीं पहचाना?

मैं—मुझे अफ़सोस है कि मैंने आपको पहले कभी नहीं देखा और अगर देखा भी हो तो घूंघट की आड़ से क्योंकर पहचान सकता हूँ।

लीला—यह तुम्हारी बीवी कुमुदिनी है!

मैंने आश्चर्य के स्वर में कहा—कुमुदिनी यहाँ!

लीला—कुमुदिनी, मुँह खोल दो और अपने प्यारे पति का स्वागत करो।

कुमुदिनी ने काँपते हुए हाथों से जरा-सा घूंघट उठाया। लीला ने सारा मुँह खोल दिया और ऐसा मालूम हुआ कि जैसे बादल से चांद निकल आया। मुझे खयाल आया, मैंने यह चेहरा कहीं देखा है। कहां? आह, उसकी नाक पर भी तो वही तिल है, उंगली में वही अंगूठी भी है।

लीला—क्या सोचते हो, अब पहचाना?

मैं—मेरी कुछ अक्ल काम नहीं करती। हूबहू यही हुलिया मेरे एक प्यारे दोस्त मेहर सिंह का है।

लीला—(मुस्कराकर) तुम तो हमेशा निगाह के तेज बनते थे, इतना भी नहीं पहचान सकते!

मैं खुशी से फूल उठा—कुमुदिनी मेहर सिंह के भेस में! मैंने उसी वक्त उसे गले से लगा लिया और खूब दिल खोलकर प्यार किया। इन कुछ क्षणों में मुझे जो खुशी हासिल हुई उसके मुक़ाबिले में जिन्दगी भर की खुशियां हेच हैं। हम दोनों