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गुप्त धन
 


जिसे बयान नहीं किया जा सकता। एक हरे-भरे मैदान का नक्शा आँखों के सामने खिंच गया और लीला, प्यारी लीला उस मैदान पर बैठी हुई मेरी तरफ़ हसरतनाक आँखों से ताक रही थी। मैंने एक लम्बी आह भरी और बिना कुछ कहे उठ खड़ा हुआ। इस वक्त मेहर सिंह ने मेरी तरफ़ ताका, उसकी आँखों में मोती के कतरे डबडबाये हुए थे और बोला—कभी-कभी तशरीफ़ लाया कीजिएगा।

मैंने सिर्फ इतना जवाब दिया—मैं आपका बहुत कृतज्ञ हूँ।

धीरे-धीरे मेरी यह हालत हो गयी कि जब तक मेहर सिंह के यहाँ जाकर दो-चार गाने न सुन लूं जी को चैन न आता। शाम हुई और मैं जा पहुंचा। कुछ देर तक गानों की बहार लूटता और तब उसे पढ़ाता। ऐसे जहीन और समझदार लड़के को पढ़ाने में मुझे खास मजा आता था। मालूम होता था कि मेरी एक-एक बात उसके दिल पर नक्श हो रही है। जब तक मैं पढ़ाता वह पूरे जी-जान से कान लगाये बैठा रहता। जब उसे देखता, पढ़ने-लिखने में डूबा हुआ पाता। साल भर में अपने भगवान के दिये हुए जेहन की बदौलत उसने अंग्रेजी में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। मामूली चिट्ठियाँ लिखने लगा और दूसरा साल गुजरते-गुजरते वह अपने स्कूल के कुल छात्रों से बाजी ले गया। जितने मुरिस थे, सब उसकी अक्ल पर हैरत करते और सीधा नेक-चलन ऐसा कि कभी झूठ-मूठ भी किसी ने उसकी शिकायत नहीं की। वह अपने सारे स्कूल की उम्मीद और रौनक था लेकिन बावजूद सिख होने के उसे खेल-कूद में रुचि न थी। मैंने उसे कभी क्रिकेट में नहीं देखा। शाम होते ही सीधे घर चला आता और लिखने-पढ़ने में लग जाता।

मैं धीरे-धीरे उससे इतना हिल-मिल गया कि बजाय शिष्य के उसको अपना दोस्त समझने लगा। उम्र के लिहाज से उसकी समझ आश्चर्यजनक थी। देखने में १६-१७ साल से ज्यादा न मालूम होता मगर जब कभी मैं रवानी में आकर दुर्बोध कवि-कल्पनाओं और कोमल भावों की उसके सामने व्याख्या करता तो मुझे उसको भंगिमा से ऐसा मालूम होता कि एक-एक बारीकी को समझ रहा है। एक दिन मैंने उससे पूछा—मेहर सिंह, तुम्हारी शादी हो गयी?

मेहर सिंह ने शरमाकर जवाब दिया—अभी नहीं।

मैं—तुम्हें कैसी औरत पसन्द है?

मेहर सिंह—मैं शादी करूँगा ही नहीं।