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शोक का पुरुस्कार
२७
 


मिस लीलावती से मिलने का चाव मन में लेकर चला। वहाँ जाकर देखा तो ताला पड़ा हुआ है। मालूम हुआ कि मिस साहिबा की तबीयत दो-तीन दिन से खराब थी। आबहवा बदलने के लिए नैनीताल चली गयी हैं। अफ़सोस, मैं हाथ मलकर रह गया। क्या लीला मुझसे नाराज थी? उसने मुझे क्यों खबर नहीं दी। लीला, क्या तू बेवफ़ा है, तुझसे बेवफ़ाई की उम्मीद न थी। फ़ौरन पक्का इरादा कर लिया कि आज की डाक से नैनीताल चल दूं। मगर घर आया तो लीला का खत मिला। कांपते हुए हाथों से खोला, लिखा था—मैं बीमार हूँ, मेरे जीने की कोई उम्मीद नहीं है, डाक्टर कहते हैं कि प्लेग है। जब तक तुम आओगे, शायद मेरा किस्सा तमाम हो जायगा। आखिरी वक्त तुमसे न मिलने का सख्त सदमा है। मेरी याद दिल में कायम रखना। मुझे सख्त अफसोस है कि तुमसे मिलकर नहीं आयी। मेरा क़सूर माफ करना और अपनी अभागिनी लीला को भुला मत देना। खत मेरे हाथ से छूटकर गिर पड़ा। दुनिया आँखों में अँधेरी हो गयी, मुँह से एक ठंडी आह निकली। बिना एक क्षण गवाये मैंने बिस्तर बाँधा और नैनीताल चलने के लिए तैयार हो गया। घर से निकला ही था कि प्रोफेसर वोस से मुलाक़ात हो गयी। कालेज से चले आ रहे थे, चेहरे पर शोक लिखा हुआ था। मुझे देखते ही उन्होंने जेब से एक तार निकालकर मेरे सामने फेंक दिया। मेरा कलेजा धक से हो गया। आँखों में अँधेरा छा गया, तार कौन उठाता है, हाय मारकर बैठ गया। लीला, तू इतनी जल्द मुझसे जुदा हो गयी!

मैं रोता हुआ घर आया और चारपाई पर मुंह ढाँपकर खूब रोया। नैनीताल जाने का इरादा खत्म हो गया। दस-बारह दिन तक मैं उन्माद की-सी दशा में इधर-उधर घूमता रहा। दोस्तों की सलाह हुई कि कुछ रोज के लिए कहीं घूमने चले जाओ। मेरे दिल में भी यह बात जम गयी। निकल खड़ा हुआ और दो महीने तक विंध्याचल, पारसनाथ वगैरह पहाड़ियों में आवारा फिरता रहा। ज्यों-त्यों करके नयी-नयी जगहों और दृश्यों की सैर से तबीयत को जरा तस्कीन हुई। मैं आबू में था जब मेरे नाम तार पहुँचा कि मैं कालेज की असिस्टेण्ट प्रोफ़ेसरी के लिए चुना गया हुँ। जी तो न चाहता था कि फिर इस शहर में आऊँ, मगर प्रिन्सिपल के खत ने मजबूर कर दिया। लाचार, लौटा और अपने काम में लग गया।