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गुप्त धन
 

तैयार हो जाता था लेकिन' औसत ढाई सौ मन का रहेगा। मुझे नयी मशीन की कीमत अदा करनी थी इसलिए अबसर रात को भी काम होता है।

हरनामदास—कुछ क़र्ज़ लेना पड़ा?

हरिदास—एक कौड़ी नहीं। सिर्फ मशीन की आधी कीमत बाकी है।

हरनामदास के चेहरे पर इत्मीनान का रंग नजर आया। संदेह ने विश्वास को जगह दी। प्यारभरी आँखों से लड़के की तरफ देखा और करुण स्वर में बोले-बेटा, मैंने तुम्हारे ऊपर बड़ा जुल्म किया, मुझे माफ करो। मुझे आदमियों की पहचान का बड़ा घमण्ड था, लेकिन मुझे बहुत धोखा हुआ। मुझे अब से बहुत पहले इस काम से हाथ खींच लेना चाहिए था। मैंने तुम्हें बहुत नुकसान पहुँचाया। यह बीमारी बड़ी मुबारक है जिसने मुझे तुम्हारी परख' का मौका दिया और तुम्हें अपनी लियाकत दिखाने का। काश यह हमला पाँच साल पहले ही हुआ होता। ईश्वर तुम्हें खुश रखे और हमेशा उन्नति दे, यही तुम्हारे बूढ़े बाप का आशीर्वाद है।

—'प्रेम बत्तीसी' से