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मुबारक बीमारी
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एक रोज़ देवकी ने हरिदास से कहा—अभी कितने दिन और इन बातों को लालाजी से छिपाओगे?

हरिदास ने जवाब दिया—मैं चाहता हूँ कि नयी मशीन का रुपया अदा हो जाय तो उन्हें ले जाकर सब कुछ दिखा दूं। तब तक डाक्टर साहब की हिदायत के अनुसार तीन महीने भी पूरे हो जायेंगे।

देवकी—लेकिन इस छिपाने से क्या फायदा, जब वे आठों पहर इसी की रट लगाये रहते हैं। इससे तो चिन्ता और बढ़ती ही है, कम नहीं होती। इससे तो यही अच्छा है, कि उनसे सब कुछ कह दिया जाय।

हरिदास—मेरे कहने का तो उन्हें यक़ीन आ चुका। हाँ, दीनानाथ कहें तो शायद यक़ीन हो।

देवकी—अच्छा तो कल दीनानाथ को यहाँ भेज दो। लाला जी उसे देखते ही खुद बुला लेंगे, तुम्हें इस रोज़-रोज की डाँट-फटकार से तो छुट्टी मिल जायगी।

हरिदास—अब मुझे इन फटकारों का जरा भी दुख नहीं होता। मेरी मेहनत और योग्यता का नतीजा आँखों के सामने मौजूद है। जब मैंने कारखाना अपने हाथ में लिया था, आमदनी और खर्च का मीजान मुश्किल से बैठता था। आज पाँच सौ का नफा है। तीसरा महीना खत्म होनेवाला है और मैं मशीन की आधी कीमत अदा कर चुका। शायद अगले दो महीनों में पूरी कीमत अदा हो जायगी। उस वक्त से कारखाने का खर्च तिगुने से ज्यादा है लेकिन आमदनी पंचगुनी हो गयी है। हजरत देखेंगे तो आँखें खुल जायँगी। कहाँ हाते में उल्लू बोलते थे। एक मेज़ पर बैठे आप ऊँचा करते थे, एक पर दीनानाथ कान कुरेदा करता था। मिस्त्री और फायर- मैन ताश खेलते थे। बस दिन में दो-चार घण्टे चक्की चल जाती थी। अब दम. मारने की फुरसत नहीं है। सारी ज़िन्दगी में जो कुछ न कर सके वह मैंने तीन महीने में करके दिखा दिया। इसी तजुर्वे और कार्रवाई पर आपको इतना घमण्ड था। जितना काम वह एक महीने में करते थे उतना मैं रोज़ कर डालता हूँ।

देवकी ने भर्त्सनापूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—अपने मुँह मियाँ मिठू बनना कोई तुमसे सीख ले! जिस तरह माँ अपने बेटे को हमेशा दुबला ही समझती है, उसी तरह बाप भी बेटे को हमेशा नादान समझा करता है। यह उनकी ममता है, बुरा मानने की बात नहीं है।

हरिदास ने लज्जित होकर सर झुका लिया।