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गुप्त धन
 

आधी रात गुजर चुकी थी। मन्दौर का किलेदार मिर्जा जलाल किले की दीवार पर बैठा हुआ मैदाने जंग का तमाशा देख रहा था और सोचता था कि असकरी को मझे ऐसा खत लिखने की हिम्मत क्योंकर हुई। उसे समझना चाहिए था कि जिस शख्स ने अपने उसूलों पर अपनी ज़िन्दगी न्योछावर कर दी, देश से निकाला गया, और गुलामी का तौक़ गर्दन में डाला वह अब अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दौर में ऐसा कोई काम न करेगा, जिससे उसको बट्टा लगे। अपने उसूलों को न तोड़ेगा। खुदा के दरबार में वतन और वतनवाले और बेटा एक भी साथ न देगा। अपने भले-बुरे की सजा या इनाम आप ही भुगतना पड़ेगा। हिसाब के रोज़ उसे कोई न बचा सकेगा।

'तौबा! जयगढ़ियों से फिर वही बेवकूफ़ी हुई। खामखाह गोलेबारी से दुश्मनों को खबर कर देने की क्या जरूरत थी? अब इधर से भी जवाब दिया जायगा और हज़ारों जानें जाया होंगी। रात के अचानक हमले के माने तो यह है कि दुश्मन सर पर आ जाय और कानोंकान खबर न हो, चौतरफ़ा खलबली पड़ जाय। माना कि मौजूदा हालात में अपनी हरकतों को पोशीदा रखना मुश्किल है। इसका इलाज अंधेरे के खन्दक से करना चाहिए था। मगर आज शायद उनकी गोलेबारी मामूल से ज्यादा तेज है। विजयगढ़ की क़तारों और तमाम मोर्चेबन्दियों को चीरकर बजाहिर उनका यहां तक आना तो मुहाल मालूम होता था, लेकिन अगर मान लो आ ही जायं तो मुझे क्या करना चाहिए। इस मसले को तय क्यों न कर लूं? खूब, इसमें तय करने की बात ही क्या है ? मेरा रास्ता साफ़ है। मैं विजयगढ़ का नमक खाता हूं। मैं जब बेघरबार, परीशान और अपने देश से निकाला हुआ था तो विजयगढ़ ने मुझे अपने दामन में पनाह दी और मेरी खिदमतों का मुनासिब लिहाज किया। उसकी बदौलत तीस साल तक मेरी ज़िन्दगी नेकनामी और इक्जत से गुजरी। उससे दग़ा करना हद दर्जे की नमकहरामी है। ऐसा गुनाह जिसकी कोई सज़ा नहीं ! वह ऊपर शोर हो रहा है। हवाई जहाज़ होंगे, वह गोला गिरा, मगर खैरियत हुई, नीचे कोई नहीं था।

'मगर क्या दग़ा हर एक हालत में गुनाह है ? ऐसी हालतें भी तो हैं, जब दग़ा वफ़ा से भी ज्यादा अच्छी हो जाती है। अपने दुश्मन से दगा करना क्या गुनाह है ? अपनी कौम के दुश्मन से दग़ा करना क्या गुनाह है? कितने ही काम जो जाती हैसियत से ऐसे होते हैं कि उन्हें माफ़ नहीं किया जा सकता, कौमी हैसियत से नेक