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वफ़ा का खंजर
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होता था, सब की नज़रों का काँटा हो गया। अनाथ बच्चों के आंसू, विधवाओं की आहें, घायलों की चीख-पुकार, व्यापारियों की तबाही, राष्ट्र का अपमान -इन सबका कारण वही एक व्यक्ति असकरी था। कौम की अगुअई सोने का राजसिंहासन भले हो पर फूलों की सेज वह हरगिज़ नहीं।

अब जयगढ़ की जान बचने की इसके सिवा और कोई सूरत न थी कि किसी तरह विरोधी सेना का सम्बन्ध मन्दौर के किले से काट दिया जाय, जो लड़ाई और रसद के सामान और यातायात के साधनों का केन्द्र था। लड़ाई कठिन थी, बहुत खतरनाक, सफलता की आशा बहुत कम, असफलता की आशंका जी पर भारी। कामयाबी अगर सूखे धान का पानी थी तो नाकामी उसकी आग। मगर छुटकारे की और कोई दूसरी तदबीर न थी। असकरी ने मिर्जा जलाल को लिखा-

"प्यारे अब्बा जान, अपने पिछले खत में मैंने जिस जरूरत का इशारा किया था, बदकिस्मती से बह ज़रूरत आ पड़ी। आपका प्यारा जयगढ़ भेड़ियों के पंजे में फंसा हुआ है और आपका प्यारा असकरी नाउम्मीदी के भँवर में, दोनों आपकी तरफ़ आस लगाये ताक रहे हैं। आज हमारी आखिरी कोशिश है, हम मुखालिफ़ फ़ौज को मन्दौर के किले से अलग करना चाहते हैं। आधी रात के बाद यह मार्का शुरू होगा।आपसे सिर्फ इतनी दरख्वास्त है कि अगर हम सर हथेली पर लेकर किले के सामने तक पहुंच सकें, तो हमें लोहे के दरवाजे से सर टकराकर वापस न होना पड़े। वर्ना आप अपनी कौम की इज्जत और अपने बेटे की लाश को उसी जगह पर तड़पते देखेंगे और जयगढ़ आपको कभी मुआफ़ न करेगा। उससे आपको कितनी ही तकलीफ़ क्यों न पहुंची हो मगर आप उसके हकों से सुबुक़दोश नहीं हो सकते।"

शाम हो चुकी थी, मैदानेजंग ऐसा नज़र आता था कि जैसे जंगल आग से जल गया हो। विजयगढ़ी फ़ौज एक खूंरेज़ मार्के के बाद खन्दकों में आ रही थी, घायल मन्दौर के किले के अस्पताल में पहुंचाये जा रहे थे, तोपें थककर चुप हो गयी थीं और बन्दूकें जरा दम ले रही थीं। उसी वक्त जयगढ़ी फ़ौज का एक अफ़सर विजयगढ़ी वर्दी पहने हुए असकरी के खेमे से निकला, थकी हुई तोपें, सर झुकाये हुए हवाई जहाज, घोड़ों की लाशें, औंधी पड़ी हुई हवागाड़ियां, और सजीव मगर टूटे-फूटे किले, उसके लिए पर्दे का काम करने लगे। उनकी आड़ में छिपता हुआ वह विजयगढ़ी घायलों की कतार में जा पहुंचा और चुपचाप ज़मीन पर लेट गया।