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वफ़ा का खंजर

जयगढ़ और विजयगढ़ दो बहुत ही हरे-भरे, सुसंस्कृत, दूर-दूर तक फैले हुए,मजबूत राज्य थे। दोनों ही में विद्या और कला खूब उन्नत थी। दोनों का धर्म एक, रहन-सहन एक, रस्म-रिवाज एक, दर्शन एक, तरक्की का उसूल एक, जीवन का मानदण्ड एक, और जबान में भी नाममात्र का ही अन्तर था। जयगढ़ के कवियों की कविताओं पर विजयगढ़ वाले सर धुनते और विजयगढ़ी दार्शनिकों के विचार जयगढ़ के लिए धर्म की तरह थे। जयगढ़ी सुन्दरियों से विजयगढ़ के घर-बार रौशन होते थे और विजयगढ़ की देवियां जयगढ़ में पुजती थीं। तब भी दोनों राज्यों में हमेशा ठनी रहती थी। ठनी ही नहीं रहती थी बल्कि आपसी फूट और ईष्या-द्वेष का बाजार बुरी तरह गर्म रहता और दोनों ही हमेशा एक-दूसरे के खिलाफ़ खंजर उठाये रहते थे। जयगढ़ में अगर कोई देश का सुधार किया जाता तो विजयगढ़ में शोर मच जाता कि हमारी ज़िन्दगी खतरे में है। इसी तरह विजयगढ़ में कोई व्यापारिक उन्नति दिखायी देती तो जयगढ़ में शोर मच जाता था। जयगढ़ अगर रेलवे की कोई नई शाख निकालता तो विजयगढ़ उसे अपने लिए काला सांप समझता और विजयगढ़ में कोई नया जहाज तैयार होता तो जयगढ़ को वह खून पीनेवाला घड़ियाल नज़र आता था। अगर यह बदगुमानियां अनपढ़ों या साधारण लोगों में पैदा होती तो एक बात थी, मजे की बात यह थी कि यह राग-द्वेष, विद्या और जागृति, वैभव और प्रताप की धरती में पैदा होता था। अशिक्षा और जड़ता की जमीन उनके लिए ठीक न थी। खास सोच-विचार और नियम-व्यवस्था के उपजाऊ क्षेत्र में तो इस बीज का बढ़ना कल्पना की शक्ति को भी मात कर देता था। नन्हाँ-सा बीज पलक मारते भर में ऊंचा-पूरा दरख्त हो जाता। कूचे और बाजारों में रोने-पीटने की सदाएं गूंजने लगतीं, देश की सभाओं में एक भूचाल-सा आ जाता, अखबारों के दिल जलानेवाले शब्द राज्य में हलचल मचा देते, कहीं से आवाज़ आ जाती-जयगढ़, प्यारे जयगढ़, पवित्र जयगढ़ के लिए यह कठिन परीक्षा का अवसर है। दुश्मन ने जो शिक्षा की व्यवस्था तैयार की है, वह हमारे लिए मृत्यु का सन्देश है। अब ज़रूरत और बहुत सख्त जरूरत है कि हम हिम्मत बांधे और साबित कर दें कि जयगढ़,