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गुप्त धन
 

रास्ते में बाधक होती थीं, धीरज न था। वह एक दिन उठा और सल्तनत मलका के सिपुर्द करके एक पहाड़ी इलाके में जा छिपा। सारा दरबार नयी उमंगों से मतवाला हो रहा था। किसी ने बादशाह को रोकने की कोशिश न की। महीनों,वर्षों हो गये, किसी को उनकी खबर न मिली।

मलका मखमूर ने एक बड़ी फ़ौज खड़ी की और बुलहवस खाँ को चढ़ाइयों पर रवाना किया। उसने इलाके पर इलाके और मुल्क पर मुल्क जीतने शुरू किये। सोने-चाँदी और हीरे-जवाहरात के अम्बार हवाई जहाज़ों पर लदकर राजधानी को आने लगे।

लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि इन रोज-ब-रोज़ बढ़ती हुई तरक्कियों से मुल्क के अन्दरूनी मामलों में उपद्रव खड़े होने लगे। वह सूबे जो अब तक हुक्म के ताबेदार थे, बग़ावत के झण्डे खड़े करने लगे। कर्ण सिंह बुन्देला एक फौज लेकर चढ़ आया। मगर अजब फौज थी, न कोई हरब-हथियार, न तोपें, सिपाहियों के हाथों में बन्दूक और तौर-तुपुक के बजाय बरबत-तम्बूरे और सारंगियाँ, बेले, सितार, और ताऊस थे। तोपों की धनगरज सदाओं के बदले तबले और मृदंग की कुमक थी। बमगोलों की जगह जलतरंग ऑर्गन और आर्केस्ट्रा था। मलका मखमूर ने समझा,आन की आन में इस फौज को तितर-बितर करती हूँ। लेकिन ज्योंही उसकी फ़ौज कर्ण सिंह के मुकाबिले में रवाना हुई,लुभावने, आत्मा को शान्ति पहुँचानेवाले स्वरों की वह बाढ़ आयी, मीठे और सुहाने गानों की वह बौछार हुई कि मलका की सेना पत्थर की मूरतों की तरह आत्मविस्मृत होकर खड़ी रह गयी। एक क्षण में सिपाहियों की आँखें नशे में डूबने लगी और वह तालियाँ बजा-बजाकर नाचने लगे, सर हिला-हिलाकर उछलने लगे, फिर सबके सब बेजान लाश की तरह गिर पड़े। और सिर्फ सिपाही नहीं, राजधानी में भी जिसके कानों में यह आवाजें गयीं वह बेहोश हो गया। सारे शहर में कोई ज़िन्दा आदमी नज़र न आता था। ऐसा मालूम होता था कि पत्थर की मूरतों का तिलस्म है। मलका अपने जहाज पर बैठी यह करिश्मा देख रही थी। उसने जहाज़ नीचे उतारा कि देखूँ क्या माजरा है ? पर उन आवाजों के कान में पहुँचते ही उसकी भी वही दशा हो गयी। वह हवाई जहाज पर नाचने लगी और बेहोश होकर गिर पड़ी। जब कर्ण सिंह शाही महल के करीब जा पहुंचा और गाने बन्द हो गये तो मलका की आँखें खुली जैसे किसी का नशा टूट जाये।