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२१२ गुप्त धन

एड्रेस पढ़ने का गौरव मुझको प्राप्त हुआ था। सारे पण्डाल में खामोशी छायी हुई थी। जिस वक्त मेरी जबान से यह शब्द निकले-ऐ राष्ट्र के नेता!ऐ हमारे आत्मिक गुरु ! हम सच्ची मुहब्बत से तुम्हें बधाई देते हैं और सच्ची श्रद्धा से तुम्हारे पैरों पर सिर झुकाते हैं... यकायक मेरी निगाह उठी और मैंने एक हृष्ट-पुष्ट हैकल आदमी को ताल्लुकेदारों की कतार से उठकर बाहर जाते देखा।यह कुंअर सज्जन सिंह थे।

मुझे कुंअर साहब की यह बेमौका हरकत, जिसे अशिष्टता समझने में कोई बाधा नहीं है, बुरी मालूम हुई। हजारों आँखें उनकी तरफ हैरत से उठीं।

जलसे के खत्म होते ही मैंने पहला काम जो किया वह कुंअर साहब से इस चीज के बारे में जवाब तलब करना था।

मैंने पूछा-क्यों साहब, आपके पास इस बेमौका हरकत का क्या जवाब है?

सज्जन सिंह ने गम्भीरता से जवाब दिया-आप सुनना चाहे तो जवाब दूं।

"शौक से फरमाइये।"

"अच्छा तो सुनिये। मैं शंकर की कविता का प्रेमी हूँ, शंकर की इज्जत करता हूँ, शंकर पर गर्व करता हूँ, शंकर को अपने और अपनी क़ौम के ऊपर एहसान करने वाला समझता हूँ, मगर उसके साथ ही उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु मानने या उनके चरणों में सिर झुकाने के लिए तैयार नहीं हूँ।"

मैं आश्चर्य से उसका मुँह तकता रह गया। यह आदमी नहीं, घमण्ड का पुतला है। देखें यह सर कभी झुकता है या नहीं।

पूरनमासी का पूरा चाँद सरयू के सुनहरे फर्श पर नाचता था और लहरें खुशी से गले मिल-मिलकर गाती थीं। फागुन का महीना था, पेड़ों में कोपलें निकली थीं और कोयल कूकने लगी थी।

मैं अपना दौरा खतम करके सदर लौटता था। रास्ते में कुंअर सज्जन सिंह से मिलने का चाव मुझे उनके घर तक ले गया, जहाँ अब मैं बड़ी बेतकल्लुफी से जाता- आता था।

मैं शाम के वक्त नदी की सैर को चला। वह प्राणदायिनी हवा, वह उड़ती हुई लहरें, वह गहरी निस्तब्धता-सारा दृश्य एक आकर्षक सुहाना सपना था।