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शेख मखमूर


मुल्के जन्नतनिशाँ के इतिहास में वह बहुत अँधेरा वक्त था जब शाह किशवर की फ़तहों की बाढ़ बड़े जोर-शोर के साथ उस पर आयी। सारा देश तबिह हो गया। आजादी की इमारतें ढह गयीं और जानोमाल के लाले पड़ गये। शाह बामुराद खूब जी तोड़कर लड़ा, खूब बहादुरी का सबूत दिया और अपने खानदान के तीन लाख सूरमाओं को अपने देश पर चढ़ा दिया मगर विजेता की पत्थर काट देनेवाली तलवार के मुकाबले में उसकी यह मर्दाना जाँवाज़ियाँ बेअसर सावित हुई। मुल्क पर शाह किशवरकुशा की हुकूमत का सिक्का जम गया और शाह बामुराद अकेला और तनहा बेयारो मददगार अपना सब कुछ आजादी के नाम पर कुर्बान करके एक झोपड़े में जिन्दगी बसर करने लगा।

यह झोंपड़ा पहाड़ी इलाके में था। आस-पास जंगलो कीमें आबाद थीं और दूर-दूर तक पहाड़ों के सिलसिले नजर आते थे। इस सुनसान जगह में शाह बामुराद मुसीबत के दिन काटने लगा, दुनिया में अब उसका कोई दोस्त न था। वह दिन भर आबादी से दूर एक चट्टान पर अपने ख्याल में मस्त बैठा रहता था। लोग समझते थे कि यह कोई ब्रह्म ज्ञान के नशे में चूर सूफ़ी है। शाह बामुराद को यों बसर करते एक ज़माना बीत गया और जवानी की विदाई और बुढ़ापे के स्वागत की तैयारियां होने लगीं।

तब एक रोज शाह बामुराद बस्ती के सरदार के पास गया और उससे कहा—मैं अपनी शादी करना चाहता हूँ। उसकी तरफ़ से पैग़ाम सुनकर वह अचम्भे में आ गया मगर चूँकिं दिल में शाह साहब के कमाल और फ़क़ीरी में गहरा विश्वास रखता था, पलटकर जवाब न दे सका और अपनी कुँआरी नौजवान बेटी उनको भेंट की। तीसरे साल इस युवती को कामनाओं की बाटिका में एक नौरस पौधा उगा। शाह साहब खुशी के मारे जामे में फूले न समाये। बच्चे को गोद में उठा लिया और हैरत में डूबी हुई माँ के सामने जोश-भरे लहजे में बोले—'खुदा का शुक्र है कि मुल्के जन्नतनिशाँ का वारिस पैदा हुआ।'

बच्चा बढ़ने लगा। अक्ल और जहानत में, हिम्मत और ताकत में, वह