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१९४ गुप्त धन


महाराजा साहब ने उसकी तरफ़ आश्चर्य से देखा और बोले--यह कौन औरत है ? सब लोग मेरी ओर प्रश्नभरी आंखों से देखने लगे और मुझे भी उस वक्त यही ठीक मालूम हुआ कि इसका जवाब मैं ही दूं वर्ना फूलमती न जाने क्या आफ़त ढा दे। लापरवाही के अंदाज़ से बोला-इसी बाग़ के माली की लड़की है, यहां फूल तोड़ने आयी होगी।

फूलमती लज्जा और भय के मारे ज़मीन में धंसी जाती थी। महाराजा साहब ने उसे सर से पांव तक गौर से देखा और तब संदेहशील भाव से मेरी तरफ़ देखकर बोले-यह माली की लड़की है ?

मैं इसका क्या जवाब देता। इसी बीच कम्बख्त दुर्जन माली भी अपनी फटी हुई पाग संभालता, हाथ में कुदाल लिये दौड़ता हुआ आया और सर को घुटनों से मिलाकर महाराज को प्रणाम किया। महाराज ने जरा तेज लहजे में पूछा-यह तेरी लड़की है ?

माली के होश उड़ गये, कांपता हुआ बोला- हुजूर।

महाराज- तेरी तनख्वाह क्या है?

दुर्जन- हुजूर, पांच रुपये।

महाराज- यह लड़की कुंआरी है या ब्याही ?

दुर्जन- हुजूर, अभी कुंआरी है।

महाराज ने गुस्से में कहा—या तो तू चोरी करता है या डाका मारता है वर्ना यह कभी नहीं हो सकता कि तेरी लड़की अमीरज़ादी बनकर रह सके। मुझे इसी वक्त इसका जवाब देना होगा वर्ना मैं तुझे पुलिस के सुपुर्द कर दूंगा। ऐसे चाल-चलन के आदमी को मैं अपने यहां नहीं रख सकता।

माली की तो घिग्घी बंध गयी और मेरी यह हालत थी कि काटो तो बदन में लहू नहीं। दुनिया अंधेरी मालूम होती थी। मैं समझ गया कि आज मेरी शामत सर पर सवार है। वह मुझे जड़ से उखाड़कर दम लेगी। महाराजा साहब ने माली को जोर से डांटकर पूछा-तू खामोश क्यों है, बोलता क्यों नहीं ? दुर्जन फूट-फूटकर रोने लगा। जब जरा आवाज सुधरी तो बोला- हुजूर,बाप-दादे से सरकार का नमक खाता हूं, अब मेरे बुढ़ापे पर दया कीजिए, यह सब मेरे फूटे नसीबों का फेर है धर्मावतार। इस छोकरी ने मेरी नाक कटा दी, कुल का नाम मिटा दिया। अब मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं हूं, इसको सब तरह से समझा-बुझाकर हार गये हुजूर, लेकिन मेरी बात सुनती ही नहीं तो क्या करूं।