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अनाथ लड़की
१६९
 

माँ ने सेठ जी की तरफ ताका और लजाकर सिर झुका लिया।

बरामदे में पहुँचते ही रोहिणी माँ की गोद से उतरकर सेठ जी के पास गयी और अपनी माँ को यकीन दिलाने के लिए भोलेपन से बोली—क्यों, तुम मेरे बाप हो न?

सेठ जी ने उसे प्यार करके कहा—हाँ, तुम मेरी प्यारी बेटी हो।

रोहिणी ने उनके मुंह की तरफ याचना-भरी आँखों से देखकर कहा—अब तुम रोज़ यहीं रहा करोगे?

सेठ जी ने उसके बाल सुलझाकर जवाब दिया-मैं यहाँ रहूँगा तो काम कौन करेगा? मैं कभी-कभी तुम्हें देखने आया करूँगा, लेकिन वहाँ से तुम्हारे लिए अच्छी-अच्छी चीजें भेजूंगा?

रोहिणी कुछ उदास-सी हो गयी। इतने में उसकी माँ ने मकान का दरवाजा खोला और बड़ी फुर्जी से मैले बिछावन और फटे हुए कपड़े समेटकर कोने में डाल दिये कि कहीं सेठ जी की निगाह उन पर न पड़ जाय। यह स्वाभिमान स्त्रियों की खास अपनी चीज़ है।

रुक्मिणी अब इस सोच में पड़ी थी कि मैं इनकी क्या खातिर-तबाज़ो करूं। उसने सेठ जी का नाम सुना था, उसका पति हमेशा उनकी बड़ाई किया करता था। वह उनकी दया और उदारता की चर्चाएँ अनेकों बार सुन चुकी थी। वह उन्हें अपने मन का देवता समझा करती थी, उसे क्या उम्मीद थी कि कभी उसका घर भी उनके क़दमों से रोशन होगा। लेकिन आज जब वह शुभ दिन संयोग से आया तो वह इस काबिल भी नहीं कि उन्हें बैठने के लिए एक मोढ़ा दे सके। घर में पान और इलायची भी नहीं। वह अपने आँसुओं को किसी तरह न रोक सकी। आखिर जब अँधेरा हो गया और पास के ठाकुरद्वारे से घण्टों और नगाड़ों की आवाजें आने लगी तो उन्होंने जरा ऊँची आवाज़ में कहा-बाई जी, अब में जाता हूँ। मुझे अभी यहाँ बहुत काम करना है। मेरी रोहिणी को कोई तकलीफ न हो। मुझे जब मौका मिलेगा, उसे देखने आऊँगा। उसके पालने-पोसने का काम मेरा है और मैं उसे बहुत खुशी से पूरा करूँगा। उसके लिए अब तुम कोई फिक्र मत करो। मैंने उसका वजीफा बाँध दिया है और यह उसकी पहली किस्त है।

यह कहकर उन्होंने अपना खूबसूरत बटुआ निकाला और रुक्मिणी के सामने रख दिया। गरीब औरत की आँखों से आँसू जारी थे। उसका जी बरबस चाहता