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बॉका जमींदार
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तीन साल का पेशगी लगान दाखिल कर दो और खूब ध्यान देकर सुन लो कि मैंम हुक्म को दुहराना नहीं जानता वर्ना मैं गाँव में हल चलवा दूंगा और घरों को खेत बना दूंगा।

सारे गांव में कोहराम मच गया। तीन साल का पेशगी लगान और इतनी जल्दी, जुटाना असम्भव था। रात इसी हैस-बैस में कटी। अभी तक आरजूभिन्नत के बिजली जैसे असर की उम्मीद बाकी थी। सुबह बड़ी इन्तजार के बाद आयी तो प्रलय बनकर आयो। एक तरफ तो जोर-जबर्दस्ती और अन्याय-अत्याचार का बाजार गर्म था, दूसरी तरफ रोती हुई आँखों, सर्द आहों और चीख-पुकार का, जिन्हें सुननेवाला कोई न था। गरीब किसान अपनी-अपनी पोटलियाँ लादे, बेकस अन्दाज़ से ताकते, आँखों में याचना भरे बीबी-बच्चों को साथ लिये रोतेबिलखते किसी अज्ञात देश को चले जाते थे। शाम हुई तो गाँव उजड़ गया था।

यह खबर बहुत जल्द चारों तरफ फैल गयी। लोगों को ठाकुर साहब के इन्सान होने पर सन्देह होने लगा। गाँव वीरान पड़ा हुआ था। कौन उसे आबाद करे। किसके बच्चे उसकी गलियों में खेलें। किसकी औरतें कुओं पर पानी भरें! राह चलते हुए मुसाफिर तबाही का यह दृश्य आँखों से देखते और अफसोस करते। नहीं मालूम उन बिराने देश में पड़े हुए गरीबों पर क्या गुजरी। आह, जो मेहनत की कमाई खाते थे और सर उठाकर चलते थे, अब दूसरों की गुलामी कर रहे हैं।

इस तरह एक पूरा साल गुजर गया। तब गांव के नसीब जागे। जमीन उपजाऊ थी। मकान मौजूद । धीरे-धीरे जुल्म की यह दास्तान फीकी पड़ गयी। मनचले किसानों की लोभ-दृष्टि उस पर पड़ने लगी। वला से जमींदार जालिम है, बेरहम है, सख्तियाँ करता है, हम उसे मना लेंगे। तीन साल की पेशगी लगान का क्या ज़िक्र वह जैसे खुश होगा, खुश करेंगे। उसकी गालियों को दुआ समझेंगे, उसके जूते अपने सर आँखों पर रखेगे। वह राजा हैं, हम उनके चाकर हैं। जिन्दगी की कशमकश और लड़ाई में आत्मसम्मान को निबाहना कैसा मुश्किल काम है? दूसरा असाढ़ आया तो वह गाँव फिर बागीचा बना हुआ था। बच्चे फिर अपने दरवाजों पर घरौंदे बनाने लगे, मर्दों के बुलन्द आवाज के गाने खेतों में सुनायी दिये व औरतों के सुहाने गीत चक्कियों पर। जिन्दगी के मोहक दृश्य दिखायी देने लगे। साल भर और गुजरा। जब रबी की दूसरी फसल आयी तो सुनहरी बालों

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