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नेकी
 

सावन का महीना था। रेवती रानी ने पांव में मेंहदी रचायी, मांग- चोटी संवारी और तब अपनी बूढ़ी सास से जाकर बोली-अम्मा जी, आज मैं भी मेला देखने जाऊँगी।

रेवती पण्डित चिन्तामणि की पत्नी थी। पण्डित जी ने सरस्वती की पूजा में ज्यादा लाभ न देखकर लक्ष्मी देवी की पूजा करनी शुरू की थी। लेन-देन का कारबार करते थे मगर और महाजनों के विपरीत खास-खास हालतों के सिवा पच्चीस फीसदी से ज्यादा सूद लेना उचित न समझते थे।

रेवती की सास एक बच्चे को गोद में लिये खटोले पर बैठी थीं। बहू की बात सुनकर बोली-भीग जाओगी तो बच्चे को जुकाम हो जायगा।

रेवती-नहीं अम्मां मुझे देर न लगेगी, अभी चली आऊँगी।

रेवती के दो बच्चे थे--एक लड़का, दूसरी लड़की । लड़की अभी गोद में थी और लड़का हीरामन सातवें साल में था। रेवती ने उसे अच्छे-अच्छे कपड़े पहनाये। नज़र लगने से बचाने के लिए माथे और गालों पर काजल के टीके लगा दिये, गुड़ियाँ पीटने के लिए एक अच्छी रंगीन छड़ी देदी और अपनी सहेलियों के साथ मेला देखने चली।

कीरत सागर के किनारे औरतों का बड़ा जमघट था। नीलगूं घटाएं छायी हुई थीं। औरतें सोलह सिंगार किये सागर के खुले हुए हरे-भरे सुन्दर मैदान में सावन की रिमझिम वर्षा की बहार लूट रही थीं। शाखों में झूले पड़े थे। कोई झूला झूलती कोई मल्हार गाती, कोई सागर के किनारे बैठी लहरों से खेलती। ठंडी-ठंडी खुशगवार पानी को हलकी-हलकी फुहार, पहाड़ियों की निखरी हुई हरियावल, लहरों के दिलकश झकोले मौसम को ऐसा बना रहे थे कि उसमें संयम टिक न पाता था।

आज गुड़ियों की विदाई है । गुड़ियाँ अपनी ससुराल जायंगी। कुंआरी लड़कियाँ हाथ-पांव में मेंहदी रचाये गुड़ियों को गहने-कपड़े से सजाये उन्हें विदा करने आयी हैं। उन्हें पानी में बहाती हैं और छकछककर सावन के गीत गाती हैं। मगर