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सिर्फ एक आवाज १४७ में ललकारकर बोला-मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ और मरते दम तक उस पर कायम रहूँगा। ६ इतना सुनना था कि दो हजार आँखें अचम्भे से उसकी तरफ ताकने लगीं। सुभानअल्लाह, क्या हुलिया थी---गाड़े की ढीली मिर्ज़ई, घुटनों तक चढ़ी हुई धोती, सर पर एक भारी-सा उलझा हुआ साफ़ा, कन्धे पर चुनौटी और तम्बाकू का वजनी बटुआ, मगर चेहरे से गम्भीरता और दृढ़ता स्पष्ट थी। गर्द आँखों के तंग घेरे से बाहर निकला पड़ता था। उसके दिल में अब इस शानदार मजमे की इज्जत वाकी न रही थी। वह पुराने वक्तों का आदमी था जो अगर पत्थर को पूजता था तो उसी पत्थर से डरता भी था, जिसके लिए एकादशी का व्रत केवल स्वास्थ्य-रक्षा की एक युक्ति और गंगा केवल स्वास्थ्यप्रद पानी की एक धारा न थी। उसके विश्वासों में जागृति न हो लेकिन दुविधा नहीं थी। यानी कि उसकी कथनी और करनी में अन्तर न था और उसकी बुनियाद कुछ अनुकरण और देखादेखी पर थी मगर अधिकांशतः भय पर, जो ज्ञान के आलोक के बाद वृत्तियों के संस्कार की सबसे बड़ी शक्ति है। गेरुए बाने का आदर और भक्ति करना उसके धर्म और विश्वास का एक अंग था। संन्यास में उसकी आत्मा को अपना अनुचर बनाने की एक सजीव शक्ति छिपी हुई थी और उस ताक़त ने अपना असर दिखाया। लेकिन मजमे की इस हैरत ने बहुत जल्द मजाक की सूरत अख्तियार की। मतलब-भरी निगाहें आपस में कहने लगी-आखिर गॅवार ही तो ठहरा! देहाती है, ऐसे भाषण कभी काहे को सुने होंगे, बस उबल पड़ा। उथले गड्ढे में इतना पानी भी न समा सका! कौन नहीं जानता कि ऐसे भाषणों का उद्देश्य मनोरंजन होता है ! दस आदमी आये, इकट्ठे बैठे, कुछ सुना, कुछ गप-शप मारी और अपने-अपने घर लौटे, न यह कि कौल-करार करने बैठे, अमल करने के लिए कसमें खायें ! मगर निराश संन्यासी सोच रहा था--अफ़सोस जिस मुल्क की रोशनी में इतना अंधेरा है, वहाँ कभी रोशनी का उदय होना मुश्किल नज़र आता है। इस रोशनी पर, इस अँधेरी, मुर्दा और बेजान रोशनी पर मैं जहालत को अज्ञान को ज्यादा ऊँची जगह देता हूँ। अज्ञान में सफ़ाई है और हिम्मत है, उसके दिल और जवान में पर्दा नहीं होता, न कथनी और करनी में विरोध। क्या यह अफ़सोस की बात नहीं है कि ज्ञान अज्ञान के आगे सिर झुकाये? इस सारे मजमे में सिर्फ एक आदमी है,