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सिर्फ एक आवाज़ सुबह का वक्त था। ठाकुर दर्शनसिंह के घर में एक हंगामा बरपा था। आज रात को चन्द्रग्रहण होनेवाला था। ठाकुर साहब अपनी बूढ़ी ठकुराइन के साथ गंगाजी जाते थे इसलिए सारा घर उनकी पुरशोर तैयारी में लगा हुआ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुर्ता टाँक रही थी, दूसरी बहू उनकी पगड़ी लिये सोचती थी, कि कैसे इसकी मरम्मत करूँ। दोनों लड़कियाँ नाश्ता तैयार करने में तल्लीन थीं, जो ज्यादा दिलचस्प काम था और बच्चों ने अपनी आदत के अनुसार एक कुहराम मचा रखा था क्योंकि हर एक आने-जाने के मौके पर उनका रोने का जोश उमंग पर होता था। जाने के वक्त साथ जाने के लिए रोते, आने के वक्त इसलिए रोते कि शीरीनी का बाँट-बखरा मनोनुकूल नहीं हुआ। बूढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसलाती थीं और बीच-बीच में अपनी बहुओं को समझाती थीं-देखो खबरदार! जब तक उग्रह न हो जाय, घर से बाहर न निकलना । हँसिया, छुरी, कुल्हाड़ी, इन्हें हाथ से मत छुना। समझाये देती हूँ, मानना चाहे न मानना। तुम्हें मेरी बात की कौन परवाह है । मुँह में पानी की बूंद न पड़े। . नारायण के घर विपत पड़ी है। जो साधुभिखारी दरवाजे पर आ जाय उसे फेरना मत। बहुओं ने सुना और नहीं सुना। वे मना रही थीं कि किसी तरह यह यहाँ से टलें। फागुन का महीना है, गाने को तरस गये। आज खूब गाना-बजाना होगा। ठाकुर साहब थे तो बूड़े, लेकिन बुढ़ापे का असर दिल तक नहीं पहुँचा था! उन्हें इस बात का गर्व था कि कोई ग्रहण गंगा-स्नान के बगैर नहीं छूटा। उनका ज्ञान आश्चर्यजनक था। सिर्फ पत्रों को देखकर महीनों पहले सूर्य ग्रहण और दूसरे पर्वो के दिन बता देते थे। इसलिए गाँववालों की निगाह में उनकी इज्जत अगर पण्डितों से ज्यादा न थी तो कम भी न थी। जवानी में कुछ दिनों फ़ौज में नौकरी भी की थी। उसकी गर्मी अब तक बाक़ी थी, मजाल न थी कि कोई उनकी तरफ सीधी आँख से देख सके। सम्मन लानेवाले एक चपरासी को ऐसी व्यावहारिक चेतावनी दी थी जिसका उदाहरण आस-पास के दस-पाँच गाँव में भी नहीं मिल सकता। हिम्मत और हौसले के कामों में अब भी आगे-आगे रहते थे। किसी काम को