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गुप्त धन
 


हुई है। वहीं तुम्हारी तबीयत जमती है, आप वहीं जाइए, मुझे अपने हाल पर रहने दीजिए। मैं बहुत अच्छी तरह हूँ।

दयाशंकर करुण स्वर में बोले—क्या तुमने मुझे ऐसा बेवफ़ा समझ लिया है?

गिरिजा—जी हाँ, मेरा तो यही तजुर्बा है।

दयाशंकर—तो तुम सख्त ग़लती पर हो। अगर तुम्हारा यही खयाल है तो मैं कह सकता हूँ कि औरतों की अन्तर्दृष्टि के बारे में जितनी बातें सुनी हैं वह सब ग़लत हैं। गिरजन, मेरे भी दिल है…

गिरिजा ने बात काटकर कहा—सच, आपके भी दिल है यह आज नयी बात मालूम हुई!

दयाशंकर कुछ झेंपकर बोले—खैर, जैसा तुम समझो। मेरे दिल न सही, मेरे जिगर न सही, दिमाग़ तो साफ़ ज़ाहिर है कि ईश्वर ने मुझे नहीं दिया वर्ना वकालत में फ़ेल क्यों होता। तो गोया मेरे शरीर में सिर्फ पेट है, मैं सिर्फ खाना जानता हूँ और सचमुच है भी ऐसा ही, तुमने मुझे कभी फाका करते नहीं देखा। तुमने कई बार दिन-दिन भर कुछ नहीं खाया है, मैं पेट भरने से कभी बाज़ नहीं आया। लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ है कि दिल और जिगर जिस कोशिश में असफल रहे वह इसी पेट ने पूरी कर दिखायी या यों कहो कि कई बार इसी पेट ने दिल और दिमाग़ और जिगर का काम कर दिखाया है और मुझे अपने इस अजीब पेट पर कुछ गर्व होने लगा था मगर अब मालूम हुआ कि मेरे पेट की बेहयाइयाँ लोगों को बुरी मालूम होती हैं....इस वक़्त मेरा खाना न बने। मैं कुछ न खाऊँगा।

गिरिजा ने पति की तरफ देखा, चेहरे पर हलकी-सी मुस्कराहट थी, वह यह कह रही थी कि यह आखिरी बात तुम्हें ज्यादा सम्हलकर कहनी चाहिए थी। गिरिजा और औरतों की तरह यह भूल जाती थी कि मर्दों की आत्मा को भी कष्ट हो सकता है। उसके खयाल में कष्ट का मतलब शारीरिक कष्ट था। उसने दयाशंकर के साथ और चाहे जो रियायत की हो, खिलाने-पिलाने में उसने कभी भी रियायत नहीं की और जब तक खाने की दैनिक मात्रा उनके पेट में पहुँचती जाय उसे उनकी तरफ से कोई ज़्यादा अन्देशा नहीं होता था। हज़म करना दयाशंकर का काम था। सच पूछिये तो गिरिजा ही की सख्तियों ने उन्हें हाकी का शौक दिलाया वर्ना अपने और सैकड़ों भाइयों की तरह उन्हें दफ़्तर से आकर हुक्के और शतरंज से ज़्यादा मनोरंजन होता था। गिरिजा ने यह धमकी सुनी तो त्योरियाँ चढ़ाकर बोली—अच्छी बात है, न बनेगा।