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गुप्त धन
 


एक रोज पहले बाबू साहब सतारा को रवाना हुए। सफ़र की तैयारियों में इतने व्यस्त थे कि गिरिजा से बातचीत करने की भी फुर्सत न मिलती थी। आनेवाली खुशियों की उम्मीद उस क्षणिक वियोग के खयाल के ऊपर भारी थी।

कैसा शहर होगा! बड़ी तारीफ सुनते हैं। दकन सौन्दर्य और संपदा की खान है। खूब सैर रहेगी। हज़रत तो इन दिल को खुश करनेवाले खयालों में मस्त थे और गिरिजा आँखों में आँसू भरे अपने दरवाजे पर खड़ी यह कैफियत देख रही थी और ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि इन्हें खैरियत से लाना। वह खुद एक हफ़्ता कैसे काटेगी, यह खयाल बहुत ही कष्ट देनेवाला था।

गिरिजा इन विचारों में व्यस्त थी और दयाशंकर सफर की तैयारियों में। यहाँ तक कि सब तैयारियाँ पूरी हो गयीं। इक्का दरवाजे पर आ गया। बिस्तर और ट्रक उस पर रख दिये गये और तब विदाई भेंट की बातें होने लगीं। दयाशंकर गिरिजा के सामने आये और मुस्कराकर बोले—अब जाता हूँ।

गिरिजा के कलेजे में एक बर्छी-सी लगी। बरबस जी चाहा कि उनके सीने से लिपटकर रोऊँ। आँसुओं की एक बाढ़ सी आँखों में आती हुई मालूम हुई मगर ज़ब्त करके बोली—जाने को कैसे कहूँ, क्या वक्त आ गया?

दयाशंकर—हाँ, बल्कि देर हो रही है।

गिरिजा—मंगल को शाम की गाड़ी से आओगे न?

दयाशंकर—ज़रूर, किसी तरह नहीं रुक सकता। तुम सिर्फ उसी दिन मेरा इन्तजार करना।

गिरिजा—ऐसा न हो भूल जाओ। सतारा बहुत अच्छा शहर है।

दयाशंकर—(हँसकर) वह स्वर्ग ही क्यों न हो, मंगल को यहाँ ज़रूर आ जाऊँगा। दिल बराबर यहीं रहेगा। तुम ज़रा भी न घबराना।

यह कहकर गिरिजा को गले लगा लिया और मुस्कराते हुए बाहर निकल आये। इक्का रवाना हो गया। गिरिजा पलंग पर बैठ गयी और खूब रोयी। मगर इस वियोग के दुख, आँसुओं की बाढ़, अकेलेपन के दर्द और तरह-तरह के भावों की भीड़ के साथ एक और खयाल दिल में बैठा हुआ था जिसे वह बार-बार हटाने की कोशिश करती थी—क्या इनके पहलू में दिल नहीं है! या है तो उस पर उन्हें पूरा-पूरा अधिकार है? वह मुस्कराहट जो विदा होते वक्त दयाशंकर के चेहरे पर लग रही थी, गिरिजा को समझ में नहीं आती थी।