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गुप्त धन
 

खुशी यहाँ दे रक्खी है तो मैं उसे क्यों छोडूं। धन-दौलत को मेरा सलाम है, मुझे उसकी हवस नहीं है।

रम्भा फिर गम्भीर स्वर में बोली-मैं तुम्हारे पाँव की बेड़ी न बनूंगी। चाहे तुम अभी मुझे न छोड़ो लेकिन थोड़े दिनों में तुम्हारी यह मुहब्बत न रहेगी।

मगनदास को कोड़ा लगा। जोश से वोला-तुम्हारे सिवा इस दिल में अब कोई और जगह नहीं पा सकता!

रात ज्यादा आ गयी । अष्टमी का चाँद सोने जा चुका था। दोपहर के कमल की तरह साफ़ आसमान में सितारे खिले हुए थे। किसी खेत के रखवाले की बाँसुरी की आवाज, जिसे दूरी ने तासीर, सन्नाटे ने सुरीलापन और अँधेरे ने आत्मिकता का आकर्षण दे दिया था, कानों में आ रही थी कि जैसे कोई पवित्र आत्मा नदी के किनारे बैठी हुई पानी की लहरों से या दूसरे किनारे के खामोश और अपनी तरफ खींचनेवाले पेड़ों से अपनी ज़िन्दगी की ग़म की कहानी सुना रही है। मगनदास सो गया, मगर रम्भा की आँखों में नींद न आयी।

सुवह हुई तो मगनदास उठा और रम्भा, रम्भा पुकारने लगा। मगर रम्भा रात ही को अपनी चाची के साथ वहाँ से कहीं चली गयी। मगनदास को उस मकान के दरो-दीवार पर एक हसरत-सी छायी हुई मालूम हुई कि जैसे घर की जान निकल गयी हो। वह घबराकर उस कोठरी में गया जहाँ रम्भा रोज़ चक्की पीसती थी, मगर अफसोस आज' चक्की एकदम निश्चल थी। फिर वह कुएँ की तरफ़ दौड़ा गया लेकिन ऐसा मालूम हुआ कि कुएँ ने उसे निगल जाने के लिए अपना मुँह खोल दिया है। तब वह बच्चों की तरह चीख उठा और रोता हुआ फिर उसी झोंपड़ी में आया जहाँ कल रात तक प्रेम का वास था। मगर आह, उस वक्त वह शोक का घर वना हुआ था। जब ज़रा आँसू थमे तो उसने घर में चारों तरफ़ निगाह दौड़ाई। रम्भा की साड़ी अरगनी पर पड़ी हुई थी। एक पिटारी में वह कंगन रक्खा हुआ था जो मगनदास ने उसे दिया था। बर्तन सब रखे हुए थे, साफ और सुथरे । मगन- दास सोचने लगा----रम्भा, तूने रात को कहा था-मैं तुम्हें छोड़ दूंगी। क्या तूने वह बात दिल से कही थी ? मैंने तो समझा था, तू दिल्लगी कर रही है, नहीं तो मैं तुझे कलेजे में छिपा लेता। मैं तो तेरे लिए सब कुछ छोड़े बैठा था। तेरा प्रेम मेरे लिए सब कुछ था । आह, मैं यों बेचैन हूँ, क्या तू बेचैन नहीं है ? हाय तू रो रही है।