पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/९

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सन् १८६६ ई० से अपने जीवनके अन्त ( सन् १९०७ ) तक गुप्तजी कलकत्तेके साप्ताहिक भारतमित्रके प्रधान सम्पादकीय आसन पर विराजमान रहे। प्रायः साढ़े आठ वर्ष 'भारतमित्र" से उनका सम्बध रहा। उसके वही सर्वेसर्वा थे। उनकी लेखनीके प्रभावसे "भारतमित्र" ने अपने समयके सर्वप्रधान हिन्दी समाचार पत्र कहलानेकी सुख्याति लाभ की थी। गुप्तजी राष्ट्रियताके प्रबल समर्थक और भारतीय संस्कृतिके दृढ़ानुयायी थे। वे सनातन धर्मी थे और अपने विचार निर्भय होकर प्रकट करते थे। कांग्रेसका जन्म होनेके साथ साथ उन्होंने पत्रकारिताके क्षेत्र में प्रवेश किया था, इसलिये उनमें राष्ट्रियताकी भावना आरम्भसे ही उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। बङ्गभङ्गके प्रश्नको लेकर देशमें जागृतिकी जो लहर आयी थी, उसको आगे बढ़ानेमें हिन्दी पत्रों में गुप्तजीका “भारत मित्र" ही अग्रणी था। गुप्तजीकी हिन्दी सरस, सरल और हृदय स्पर्शिनी होती थी । अपने समयके, अपने ढंगके वे एक ही मर्मज्ञ साहित्य पारखी थे। गुप्तजीके सम्बन्धमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपने हिन्दी साहित्यके इतिहासमें लिखते हैं-"वे अपने विचारोंको विनोदपूर्ण वर्णनोंके भीतर ऐसा लपेटकर रखते थे कि उनका आभास बीच बीचमें ही मिलता था। उनके विनोदपूर्ण वर्णनात्मक विधानके भीतर विचार और भाव लुके-छिपेसे रहते थे। यह उनकी लिखावटकी एक बड़ी विशेषता थी।" स्वर्गीय प० अमृतलालजीका कथन है"पण्डित बदरीनारायण चौधरी हिन्दी बङ्गवासीको भाषा गढ़नेकी टकसाल कहा करते थे। उस समय टकसालका कोई सिक्का बाबू बालमुकुन्द गुप्तकी छापके बिना नहीं निकलता था।" निस्सन्देह प्रचलित हिन्दीके स्वरूप-निर्माणमें गुप्तजीका बहुत बड़ा भाग है।