पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/७४०

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हंसी-दिल्लगी सृष्टी रच डाली तो क्या है, ब्रह्मा भी नहिं जाना। कुछ सीखे थे बाबा माहब, कुछ जाने थे नाना । पूरा इसे आप मब जानो, बन्देहीने जाना। जो तुम कहो, जानते हो तो क्यों नहिं करते जाहिर । तो तुम सुनो साफ, इसमें मैं नहीं जरा भी माहिर । दुशमन तो दुशमन ही है पर, जो कोई है प्यारा । उसको भी क्या बुद्धि भला, वह क्या समझे बेचारा। कलयुगदास कहे करजोरे, यह सिद्धान्त हमारा । अपनी आप गायके महिमा, हो भवसागर पारा । -भारतमित्र, सन् १९०७ ई. भैसका मरसिया। बढ़ दिलकी क्योंकर न अब बेकरारी । जो मरजाय यों भैंस लाला तुम्हारी ? वह उम्र अपनी इतनीही थी लाई बिचारी। सितम कर गई जो अदमको सिधारी ! कहूं क्या जो मुझको हुआ रंजोगम है। रह सच है कि तुमसे जियादह अलम है। तअजुब है किस वास्ते मर गई वह ! यही सोचता हूं कि क्या कर गई वह । खफा हो गई दिलमें या डर गई वह ? जो इस तरह सिर फोड़ कर मर गई वह । मेरे तनपे दहशतसे आया पसीना। सुना जब कि टकरोंसे फोड़ा था जीना। (३) न किस तरह फिर रख आजाय जी पर । कि दादीके थी आपके वह बराबर । हुआ आपको भी गमोरञ्ज यकसर । [ ७२३ ]