गुप्त-निषन्धावली फुट-कविता मरहट्ठोंने रखलई लाज। इससे जान बची है आज । तो भी कुछ कुछ हैं गुर्राते । चुपके चुपके हैं चिचियाते । इस्पेन्सरका लेकर नाम। बोलो लड़को मीताराम । गुरुके पिट्ठ, बिना बुलाये हम थे आये। दोनों हाथों सहनक लाये । संसकिरतकी तोड़ी टांग। घोट पीसके छानी भांग । पीकर भांग हुए बेहोश। सरपट दौड़े सतरह कोस । 'अजब रसायन' तब है बना। जैसे गीदड़ वैसे धुना। ली उतार पुरखोंकी पगड़ी। नाक पकड़के सबकी रगड़ी। पण्डितप्रवर हुए तब हम। वाहरे हम, भई वाहरे हम ! राजाजीका गुन था गाया। हाथ नहीं एक घेला आया। टूट गई है सारी आस। इससे जी है बहुत उदास । चूक गये हम अपनी चाल। रह गई चोटी उड़ गई खाल । -भारतमित्र, १९०६ ई. व्याकरणाचार्य साधो मैं व्याकरणाचारी घरहीके कोनेमें मिल गई मुझको विद्या सारी। सबसे अधिक पसन्द मुझे है अपनीही टिड्ढाणं । मेरा कहना तुम भी मानो, बाबा वचन प्रमाणं । साईसीका इल्म सुना है, जैसे था दरयाई । मेरी भी विद्याकी समझो, उतनी ही लंबाई । यह भी वह भी तू भी तुम भी, उसको एक न जाने ! बेजाने ही सब बकते हैं, जाने सोही बखाने । स्वर्ग मर्त्य पाताल शून्यमें, इसका नहीं ठिकाना [ ७२२ ]
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