गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता मदा विजय जिसने है पाई, अब भी जीत उसीकी भाई । कलम करे कितनीही चरचर, भालेके वह नहीं बराबर । जो जीता सो मजे उड़ावे, जो हारा सो घरको जावे । किचनर जीते कर्जन हारे, शोर मचा दुनियामें सारे ।। रोष बड़ेलाटको गुस्सा आया, बड़े रोषसे कलम उठाया। लिखा ठनकके सुनो हुजूर, अब बन्देको कोजे दूर । मुझको जल्दी रुखसत कीजे, और किसीको यहपद दीजे । लण्डनसे यह उत्तर आया, कहा आपने सो मन भाया। कहा आपका सब मंजूर, जल्द हुजियेगा काफूर । सुनते ही बस उड़ गये होश, मिट गया सारा जोश खरोश । मोचा और हुआ कुछ और, उल्टा होगया कैसा दौर ! विषादमें हर्ष अहा ! ओहो !! हुर्रे हुर्रे !!!, बङ्गदेशके उड़ गये धुरै ! रह न सका भारतका लाट, तो भी वन किया दो पाट । पहले सब कुछ कर जाता हूं, पीछे अपने घर जाता हूं। बेशक मिली उधरसे लात, किन्तु यहां तो रह गई बात । वह थी अपने घरकी चोट उसके सहनेमें नहिं खोट । पर बाहर इतराये जाना खाली शेखी खूब दिखाना । अफसरसे खा लेना मार, पर अधीनको दे पैजार । जबरदस्तसे चट दब जाना जेरदस्तको अकड़ दिखाना । यही सभ्यशासनका सार, सुन लेना तुम मेरे यार ।। स्वदेशी आन्दोलन देख देशको अपने स्वार, बंगनिवासी उठे पुकार । आंगनमें दीवार बनाई, अलग किये भाईसे भाई । [ १० ]
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