पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/७२

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मेक्समूलर रहते थे, यह क्या कम आदरको बात है ? वह भारतवर्षमें कभी नहीं आये, परन्तु जब कोई विलायत जानेवाला भारतवासी उनके घर पर जाकर उनसे मिलता था, तो उसके सामने पहले संस्कृतहीको बात छेड़ते थे । संस्कृत न जाननेके कारण कितनेही भारतवामियोंको उनके पास जाकर लज्जित होना पड़ा था। सन १८२३ ई० को दिमम्बरको जर्मनीक अन्तर्गत “डीशो" नामक स्थानमें मेक्समूलरने जन्म लिया। उनके पिता एक प्रसिद्ध जर्मन कवि थे। मेक्समलरने लिपजिक और बर्लिनके विश्वविद्यालयमें शिक्षा पाई। २० सालको उमरमें उनको उपाधि मिली । उनके शिक्षाकालके पहलेसेही जर्मनीमें संस्कृत आदि की चर्चा आरम्भ हुई थी, फारमी, अबी. पाली, संस्कृत आदि भाषाओंकी ममालोचना होने लगी थी। मेक्समूलर इन भाषाओंकी चर्चा करनेवालोंके पाम आया जाया करते थे। शलिङ्ग आदि कई प्रसिद्ध दार्शनिकोंके पास उन्होंने दर्शनशास्त्र पढ़ा, तभी उनकी संस्कृत पढ़नेकी मची हुई और १ वपके भीतर हितोपदेशका एक अनुवाद प्रकाशित किया। पीछे वह वलिन विश्वविद्यालयकी संग्रहीत संस्कृत पुस्तकोंको पढ़ने और आलोचना करनेमें नियुक्त हुए, वहाँसे वह हर माल पैरिम जाते थे और यूजिनीवानूसस संस्कृत पढ़ते थे । वानृसकी प्रेरणासेही मेक्समूलर वैदिक-चर्चा में लगे और ऋग्वेद तथा सायण-भाध्यकं एक पूर्णसंस्करणका सम्पादन करनेमें नियुक्त हुए । पैरिसमें ऋग्वेदकी जितनी पोथियां मिलीं, उन सबको देखा तथा ईए इण्डिया कार्यालय तथा आम्सफोर्ड और वड- लियमके पुस्तकालयों में जो पोथियां थों, उनके देखने के लिये मेक्समूलर विलायत गये। यह १८४६ ई० की बात है। यह काम करके जब मेस्स- मूलर अपने देशको लौटते थे, तो लण्डनमें उनकी वेरनविन्सिनसे मुलाकात हुई। उनके कहनेसे मे समूलरने स्वदेशमें आनेका इरादा छोड़ दिया। ईष्ट इण्डिया कम्पनीने ऋग्वेदके प्रचारका भार लिया और मेक्समूलरके