पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/७११

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता (११) आइये अब सब जहन्नमकों चले मिल जुलके साथ । नाम हिन्दृका बना रखनेमें क्या आयेगा हाथ ।। धूल लिग्वना खाक पढ़ना जाय सब चूल्हमें जाय । कुछ न सोचो नाच मुजरे और मदिराके सिवाय ।। नौकरी करना कि दल्लाली कि कोई फाटका । या पराया माल बेचा करके धन्धा हाटका ।। या विकालत करके सीखे छल कपट जूआ फरेब । नित्य बहकाकर लड़ाकर काट ली लोगोंकी जेब ।। क्या करंगे रहके इस दुनियांमें अब बतलाइये । खूब ढोया जिन्दगीका भार चलिये आइये ।। जो मनोवृत्ति थी वह मुदतसे गोता खा चुकी । इन्द्रियोंकी घोर नदमें नावको डुबवा चुकी ।। थामिये प्याला दमादम कीजिये बीयर गड़ाप । नाच हो गाना बजाना हो पड़े तबल पे थाप ।। म्खूब हाहा और ठीठी हो हंसी हो शोर हो। लात हों घुसे हों और बदमस्तियोंका जोर हो । खुब अपनी गन्ध फैलाये खमीरा हर तरफ । एक हो सबकी रकाबी सब तकल्लुफ बर तरफ ।। देह धरनेकी न तेरे जीमें इजत है न लाज । है तुझे धिक्कार सौ सौ वार ह हिन्दू समाज ।। व्यर्थ तू जोता है नाहक भार पृथ्वीका हुआ । देशमें बीमार था बंगालमें आकर मुआ॥ [ ६९४ ]