पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६५७

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता बना हुआ है वैसाही शीतल सुमिष्ट जल । विस्तृत रेती अब तक वैसी ही तटपर है आसपास वैसा ही वृक्षोंका झूमर है। छिटकी हुई चांदनी फैली है वृक्षों पर चमक रहे हैं चारु रेणुकण दृष्टि दुःखहर । वही शब्द है अबतक पानीकी हलचलका बना हुआ है स्वभाव ज्योंका त्यों जलथलका । वोही फागन मास और ऋतुराज वही है होली है और उसका सारा साज वही है । अहह । देखनेवाले इस अनुपम शोभाके कहां गये चल दिये किधर मुंह छिपा-छिपाके । प्रकृति देवि ! हा ! है यह कैसा दृश्य भयानक हृदय देखके रह जाता है जिसको भवचक ! क्या पृथिवीसे उठ गई सारी मानव जाती क्यों नहिं आकर इस शोभा को अधिक बढ़ाती । किसने वह मब अगली पिछली बात मिटाई एक चिह्न भी उसका नहिं देता दिखलाई। हाहा आज अकेला इस तटपर फिरता हूं लखके रह जाता हूं वही वही करता हूं। हाय सुनाऊं किसको जाकर वही वहीकी जीही लगी जानता है कुछ अपने जीको । आया हूं क्या यही देखनेको समाटा जिसने जगसे एकबार ही चित्त उचाटा । जाग रहा हूं वा यह सपना देख रहा हूं [ ६४० ]