पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६४५

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गुप्त-निबन्धवाली स्फुट-कविता छालको वृक्षों पर रहने दो जो तुमको फल चखना है। हे धनवानो हा धिक ! किसने हरली बुद्धि तुम्हारी है, निर्धन उजड़ जायंगे तब फिर कहिये किसकी बारी है ? इससे उचित यही है तुम परिणाम पे अपने ध्यान करो, धर्म नीतिसे नहीं डरते तो निज बरबादी सोच डरो। जो गर्मी आनेसे पहिले शिमलेको चल देते हैं, सुखके सागरमें अपने जीवनकी नौका खेते हैं। साथ लिये गोरी मेमोंको सुखसे सदा विचरते हैं, भांति भांतिकी सुखमय क्रीड़ा और कुतूहल करते हैं । तत्ता झोंका जिन्हें स्वप्नमें भी नहिं सहना पड़ता है, प्रीष्म शब्द उनको मुखतकसे भी नहिं कहना पड़ता है। उनकी जाने बला दीन दुखियोंसे कैसी पटती है, कोई मरे जिये कोई उनकी तो सुखसे कटती है । सय्यद बाबा ! एक क्षण भरको ध्यान इधर भी कर लीजे, इस सीधीसी बात का मेरे अवश्यही उत्तर दीजे । जब यह कृषक समाज सर्वथा नष्ट भ्रष्ट हो जावेगा, तब यह सुख-लोलुप समाज क्या आप अन्न उपजावेगा ? सुख-सागरमें लहरें लेना जिसको लब्ध सदा ही है, जिसके घरमें रंगरलियोंसे सदा मुहम्मदशाही है। चाहे टिकसके मारे लोगोंके तन पे चाम न हो, पर उनके व्यय और वेतनमें कभी कमीका नाम न हो। उनकी आंखोंमें बाबाजी किसका दुख कब जंचता है, जिनके घाऊघप्प पेटमें कहतका चन्दा पचता है। इसी प्रकार वणिक लोगोंकी भी अब पूंजी घटती है, आये वर्ष पाँच दसका जो तप्पर टाट उलटती है। [ ६२८ ।