जातीय-राष्ट्रिय-भावना जिस अवसर पर अमीर सारे तहखाने सजवाते हैं, छोटे बड़े लाट साहब शिमलेमें चैन उड़ाते हैं। उस अवसरमें मरखप कर दुखिया अनाज उपजाते हैं, हाय विधाता उसको भी सुखसे नहिं खाने पाते हैं। जमके दूत उसे खेतोंहीसे उठवा ले जाते हैं। यह वचारे उनके मुहको तकते ही रह जाते हैं। अहा बिचारे दुखके मारे निस दिन पच-पच मर किसान, जब अनाज उत्पन्न होय तब सब उठवा लेजाय लगान । यह लगान पापी सराही अन्न हड़प कर जाता है, कभी-कभी सबका सब भक्षण कर भी नहीं अघाता है । जिन बेचारोंके तन पर कपड़ा छप्पर पर फंस नहीं, खानेको दोसेर अन्न नहीं बैलोंको तृण तूस नहीं। नग्न शरीरों पर उन वंचारोंके कोड़े पड़ते हैं, माल माल कहकर चपरासी भागकी भांति बिगड़ते हैं । सुनी दशा कुछ उनकी बावा ! जो अनाज उपजाते हैं, जिनके श्रमका फल खा खाकर सभी लोग सुख पाते हैं। हे बाबा! जो यह बेचारे भूखों प्राण गवावंगे, तब कहिये क्या धनी गलाकर अशर्फियां पी जावंगे ? सच पूछो तो धनिकोंका निर्वाह इन्हीसे होता है, जो उजाड़ता है इनको वह सारा देश डबोता हैं। चोर नहीं हैं यह बेचारे फिर क्यों मारे जाते हैं, हाय दोष बिन हवालातमें नाना कष्ट उठाते हैं । इस प्रकार यह दीन हीन जब दुखसे मारे जावंगे, तब कहिये क्या आय फरिश्ते जगका काम चलावंगे ? आड़ बाड़ मतदूर करा जो खेतको रक्षित रखना है, [ ६२७ ]
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