योगेन्द्रचन्द्र बसु था, पर चल न सका। कई माल हुए, वह बन्द हो गया है । 'जन्मभूमि' नामका एक बंगला मासिक पत्र भी योगेन्द्रबाबूने बड़ी योग्यतासे चलाया था। उसका जन्म हिन्दी-बंगवासीके माथ साथही हुआ था । कोई पांच छः साल उक्त पत्र चला । खूब मम्तापत्र था, मचित्र था. ग्राहक भी उसे कोई डेढ़ हजार मिले थे, पर चल न मका । बन्द करना पड़ा। इसके बाद एक अंग्रेजी सचित्र मासिक पत्र भी आपने निकाला था, जो चल न मका, जल्द बन्द होगया । योगेन्द्रबाबूका दिमाग मदा नई नई बात तलाश किया करता था। बंगला और हिन्दीमें सस्ते पत्र चलानेके बाद उनको यह धुन समाई कि एक अंग्रेजीका सस्ता पत्र भी चलाया जाय । गत वर्षसे टेलीग्राफ' नामका एक अंग्रेजी दैनिक-पत्र उन्होंने निकालही दिया। कलकत्त में किसी अंग्रेजी दैनिक-पत्रकी एक संख्या चार पैसेसे कममें नहीं बिकती है. पर टेलीग्राफका आकार खूब बड़ा होनेपर भी उसकी एक कापी एक पैसे में विकती है। मजा यह है कि उतना बड़ा कोरा कागज भो एक पंसमें नही मिलता है। इस सस्तापनपर अंग्र जी अखबार हैरान हैं। बाबू योगेन्द्रचन्द्र बसुमं कई गुण थे। वह अखबारके मालिक भी थ और सम्पादक भी थे। जिनने अग्बबार उनके यहाँसे निकले. उनके आदि मम्पादक वही होते थे । बंगवासीमें वह बराबर लिखते थे और बीचबीच- में उसके पूरे सम्पादक बन जाते थे। जन्मभूमि और दैनिक भी उन्हीके लेखोंसे चमकते थे। आदिमें हिन्दी-बङ्गवासीके लिये भी वह बंगलामें लिखते थे और उन लेखोंका हिन्दी अनुवाद उक्त पत्रमें छपता था । सम्पादकके सिवा, वह कवि भी थे और गद्य बंगलाके एक जबर्दस्त और विचारशील लेखक थे। उन्होंने बंगभाषामें कई उपन्यास ऐसे धूमके लिये हैं, जिनकी हजारों कापियां बिकी और कई कई बार छपी। उनके 'मोडेल- भगिनी' नामके उपन्यासकी बड़ी भारी कटती हुई । 'कालानन्द' नामका
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