पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६११

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता ससि ज्योति पाय रज रजत भई, कण चमके चमचम करें। जिमि टूटि टूटि नभसों नखत, आय भूमि ऊपर परें। छिटक रही चांदनी बढ्यो सौन्दर्य्य अपारा । भये ज्योतिमय वृक्ष, पत्र चमकै जिमि तारा ॥ केकी कण्ठ कठोर भयो चुपझिल्लिन साधी । मसक दंस भये साधु, भूमि-महं लई समाधी ।। कोकिल अवरोध्यो कण्ठ अरु, चातक पुनि प्यासो भयो। खंजन कुञ्जन अरु हंसगन, समय पाय दरसन दयो। फले हारसिंगार महक चहुं ओर उडावहिं । नानाविधि तमराजि विकसि अति शोभा पावहिं॥ निर्मल निश्चल वारियुक्त सब सागर सोहैं। रंग रंगके कमल विकसि तिनमहं मन मोहैं। रमनीय सुखद सुन्दर सरत, इह रूप आय दरसन दियो । मन देवन पितृन ऋषिनको, सब प्रकार प्रमुदित कियो ।। धन्य सुअवसर कियो मात जगदम्बा आवन । पाप ताप सब नसे भयो भारत अति पावन ।। [ ५९४ ]