पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५८३

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना ठण्डी साँसकी फांसका ठोका खाकर झंझलाकर कहा-मैं कुछ ऐसा बड़ बोला नहीं जो राईको पर्वत कर दिखाऊँ और झूठ सच बोलकर उङ्गलियां नचाऊं और वेसुरी बेठिकानेकी उलझी-सुलझी तानें लिये जाऊँ। मुझसे न हो सकता तो भला मुंहसे क्यों निकालता ? जिस ढबसे होता इस बखेड़को टालता । *** अपना हाथ उठाकर मूंछोंको ताव देता हूं जो मेरे दाताने चाहा तो वह ताव भाव और हाव चाव और कूद फांद और लपट झपट दिखाऊं आपके ध्यानका घोड़ा जो बिजलीसे भी बहुत चञ्चल उचपलाहटमें है, देखतेही हरनके रूप अपनी चौकड़ी भूल जाय।" ___यह तो हुआ उस कहानीके गद्यका नमूना। अब पद्यका भी लीजिये - "घोड़े पे अपने चढ़के आता हूं मैं, करतब जो हैं सब दिखाता हूं मैं । उस चाहनेवालेने जो चाहा तोअभी, कहता जो कुछ हूं कर दिखाता हूं मैं।" इस कविताका नाम आपने रखा है चौतुका। इंशाने अपनी यह कहानी केवल नवाब सआदतअलीखाँके चित्त विनोदार्थ लिखी थी, ठेठ हिन्दीके प्रचारके लिये नहीं। ठेठ हिन्दीके ठाठके विषयमें भी हमने समझा था, उसी ढङ्गकी दिल्लगी पण्डित अयोध्या सिंहने की होगी। पर इस अधखिले फूलको देखकर जान पड़ा कि वह इस भाषाके प्रचारके पक्षपाती हैं ! उनकी ठेठ हिन्दीका कुछ नमूना उनकी पोथोमेंसे नीचे नकल कर देते हैं--- पहली पंखड़ी। “बैशाखका महीना, दो घड़ी रात बीत गई है। चमकीले-तारे चारों ओर आकाशमें फैले हुए हैं, दूजका बालसा पतला चांद, पच्छिम ओर डूब रहा है, अन्धियाला बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों अन्धियाला बढ़ता है, तारोंकी चमक बढ़ती जान पड़ती है। उनमें जोतसी फूट रही है, वह कुछ हिलते भी हैं, उनमें चुपचाप कोई-कोई कभी टूट पड़ते हैं, जिससे सुनसान आकासमें रह रहकर फुलझड़ी-सी छूट जाती है। रातका [ ५६६ ]