पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५८२

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अधखिला फल निजामाबाद-निवासी पण्डित अयोध्यासिंह उपाध्यायने इस नामसे एक कहानी लिखी है। यह उन्होंने "ठेठ हिन्दी” में लिखी है और उनकी इस कहानीकी भूमिका पढ़नेसे यह भी विदित होता है कि आगे वह इस 'ठेठ हिन्दी' ही के प्रचार करनेकी चेष्टा करंगे। इससे पहले भी "ठेठ हिन्दीका ठाठ” नामकी पोथी वह लिख चुके हैं। वह हमने नहीं देखी। पर जो पोथी हमारे सामने है, उसकी भाषा और भूमिका पढ़नेसे हमने ठठ हिन्दीके ठाठकी भाषाका भी अनुमान कर लिया है। हम ठेठ हिन्दीके तरफदार नहीं। ठेठ हिन्दीका हमारी समझमें कुछ अर्थ भी नहीं। अधखिले फलकी भूमिकामें पण्डित अयोध्यासिंहजीने ठेठ हिन्दीका कुछ लक्षण बताया है, पर उसे हम नहीं मान सकते। सौ सालसे अधिक हुए, लखनऊमें उदके कवि इंशाने ठेठ हिन्दीको एक कहानी लिखी थी। कोई ४०-५० पृष्ठकी थी। उसकी कुछ भाषा हम नीचे उद्धृत करते हैं-"अब यहांसे कहनेवाला यों कहता है कि एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान चढ़ी कोई कहानी ऐसी कहिये जिसमें हिन्दी छुट और किसी बोलीकी पुट न मिले। बाहरकी बोली और गंवारी कुछ उसके बीचमें न हो, तब मेरा जी फूलकर कलीके रूप खिले। अपने मिलनेवालों से एक कोई बड़े पढ़े-लिखे पुराने-धुराने ठाक बड़े ढाग यह खटराग लाये सिर हिलाकर मुँह थुथाकर नाक भौं चढ़ाकर गला फुला- कर लाल-लाल आँख पथराकर कहने लगे यह बात होती दिखाई नहीं देती। हिन्दीपन भी न निकले और भाखापन भी न ठुस जाय जैसे भलेमानस अच्छोंसे अच्छे लोग आपसमें बोलते हैं जूंका तूं वही सब डौल रहे और छाँव किसोकी न पड़े यह नहीं होनेका। मैंने उनकी