तारा उपन्यास बम्बईके हिन्दी सहयोगी 'श्रीवकटेश्वर समाचार' से गोस्वामी किशोरीलालजीके 'तारा' उपन्यासकी बात चली है। उक्त पत्रका ३ जुलाईका अङ्क पढ़कर यह मालूम होगया कि गोस्वामीजी और उक्त पत्रके सम्पादकमें राजीनामा होगया। गोस्वामीजीने यह मान लिया कि अमरसिंहका साला अर्जुन, गौड़ था--हाड़ा नहीं था, न वह बून्दीका राजकुमार था । बस, “सहयोगी" वकटेश्वर, राजी होगया । पर हम पूछते हैं कि अर्जुन चाहे हाड़ा हो, चाहे गौड़, वह अपनी भानजीका एक मुसलमानसे व्याह कराना चाहता है, इसके लिये गोस्वामीको या 'वकटेश्वर'को कुछ असोस है या नहीं ? और भी हम देखते हैं कि गोस्वामीजी महाराजको अबतक भी यह मालूम नहीं है कि 'तारा' कैसी कलङ्क भरी पोथी है। क्योंकि यदि ऐसा होता तो वह यों “वकटेश्वर" में उसकी तारीफकी तान न उड़ाते। आप फरमाते हैं- "हमारे माननीय सहयोगी (वंकटेश्वर समाचार) ने जो 'तारा' पर अपनी उदार निरपेक्ष और सच्ची सम्मति देकर उस (तारा) को हिन्दी साहित्यमें चमकता हुआ तारा स्वीकार कर आधुनिक उपन्यासोंमें उच्च स्थान प्रदान किया है, इसके लिये हम अपने आदरणीय सहयोगीको अनेक धन्यवाद प्रदानकर, शुद्ध हृदयसे कृतज्ञता स्वीकार करते हैं।" जब गोस्वामीजी अपनी पोथीके लिये ऐसी ऊँची हवामें हैं, तो हमें अपना चुप रहनेका इरादा छोड़कर उन्हें कुछ नीचे उतार लाना चाहिये। गोस्वामीजी देखें कि उनकी 'तारा' कैसी है। शाहजहांका बेटा दारा- शिकोह अपनी बहन जहांनाराके पास मिलने गया है। बहन दारासे । ५६२ ]
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