गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना अपने पत्रमें अच्छे लेख लिखता है । वह लेख कई उर्दू पत्रोंमें नकल भी हो जाते हैं। पर नक्काल लोग उस पत्रका नाम नहीं लेते । इस पर उक्त पत्रके सम्पा- दकने एक लम्बा लेख लिखकर शिकायत की, उसमें कहा,-"में नित्य दस घण्टे विलायत और अमेरिकाके अखबार पढ़ता हूं और बड़े परिश्रमसे अच्छी-अच्छी खबरें निकाल कर अपने पत्रमें देता हूं। दूसरे अखबार- वाले उनको धीरेसे नकल करलेते हैं, मेरे पत्रका नाम तक नहीं लेते।" इसका लखनऊके एक उर्दूपत्रने अच्छा उत्तर दिया है। वह कहता है- "जिन अंगरेजी पत्रोंसे आप खबर और चुटकले लेते हैं, क्या कभी उनका नाम भी अपने पत्रमें छापते हैं ? नित्य दस घण्टे परिश्रम न करके खाली टिटबिट्ससे खबर और चुटकले ले लिया कीजिये, एक सप्ताहका टिटविट्स आपके कागजके लिये तीन सप्ताह तक काफी है।" बंगालियोंके उच्छिष्ट पर हिन्दीवाले गिरते हैं, यह परम लज्जाकी बात है। फिर जिसकी रकाबी चाटते हैं, उसका नाम नहीं लेते, कृत- ज्ञताका प्रकाश नहीं करते यह और भी निन्दाकी बात है। पर बंगाली जिनकी रकाबी पर हाथ साफ करते हैं, क्या उनका नाम लेते और पेट पर हाथ फेरके “जिस भण्डारसे आया वह भण्डार सदा भरपूर" कहकर असली दाताको दुआ देते हैं ? “प्रवासी ने शायद ध्यान न दिया हो, पर हमने बंगालमें रहनेसे कुछ-कुछ दिया है। बंगालियोंके लिखे बहुतसे नाटक, उपन्यास मासिकपत्रोंके लेख और कविताएं अंगरेजी और फ्रेंच भाषाओंके तरजुमे, खाके और चोरी हैं। सहयोगी "प्रवासी" जरासा इधर ध्यान देगा तो “बूढ़े मुँह मुहासे” की-सी दरजनों पोथियां बंगभाषामें पावेगा। अवश्य बंगभाषाने उन्नति की है, पर पराई रकाबीके उच्छिष्ट बिसकुट ही उसके पेटमें अधिक हैं और भरते जाते हैं। अभी बंगालियों- की अपने मगजसे निकाली हुई बातोंका कम संग्रह है। जो बंगभाषाके धुरन्धर लेखक हैं, उन्हींकी पूँजीमें अधिक पराया माल है। [ ५५८ ]
पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५७५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।