प्रवासीकी आलोचना कहते हुए "प्रवासी" ने सरस्वती-सम्पादक पण्डित महावीरप्रसादजीकी लिखी माइकेलको जीवनीको बात कहकर कहा है कि माइकेलके लिखे दो प्रहसन और दो नाटकोंका हिन्दीमें अनुवाद हुआ है। पर उनपर प्रन्थकारका नाम नहीं दिया गया। एक प्रहसनके अनुवादकर्त्ताने तो इतना भी नहीं लिखा कि उनकी पोथी अनुवाद है या नहीं। साथही उसके पात्रोंके नाम भी पलट डाले हैं। इस पर 'प्रवासो'ने कटाक्ष किया है ---"शायद यह सब लीला भूलसे हुई है ; क्योंकि जिन्हें लोग हिन्दी लेखकोंमें आचार्य समझते हैं तथा दूसरोंको उपदेश देना ही जिनके घरका वाणिज्य है, वह जान-बूझकर कभी पराई चोजको अपनी न बतायंगे।" 'प्रवासी' और भी कहता है,-"द्विवेदीजीने जिन अनुवादककी बात कही है वह धर्मोपजीवी और प्रसिद्ध तीर्थके निवासी हैं। हम उनका नाम नहीं प्रकाश करना चाहते। अनुवाद करनेमें कुछ हानि नहीं, पर मूल बङ्गला ग्रन्थके अधिकारीसे आज्ञा लिये बिना हिन्दी अनुवाद करते हमने देखा है और कई बार ऐसा करनेवालोंको खबरदार भी किया है।" कटाक्ष बड़ा तीव्र है, पर सच्चा है। इससे हमारे हृदयमें वेदना भी होती है और लज्जासे हमारा सिर भी झुका जाता है। तथापि एक बात हम अपने बंगाली सहयोगीसे कहे बिना नहीं रह सकते कि यह दोष हिन्दीवालोंमें बंगालियोंसे ही आया है। इस दोषके मूल ग्रन्थकार भी बङ्गाली हैं, हिन्दीवाले केवल बेसमझ अनुवादकर्ता हैं। सुनिये सुनाते हैं- पंजाबके लुधियाना नगरसे एक उर्दू पत्र इसी सालसे निकला है। पत्र नया होने पर भी उसका सम्पादक पुराना है, क्योंकि वह लुधियाने- ही में एक पुराने पत्रका कई सालसे सम्पादक था। अपनी समझमें वह [ ५५७ ।
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