पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५७१

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना 'तुलसी सतसई के दोहे बड़े लकड़ तोड़ हैं। उनमें सरस और सरल दोहे बहुतहो कम हैं और मूढ़ और कूट दोहोंकी भरमार है। हमको इससे पहले पूरी सतसई पढ़नेका कभी अवसर नहीं मिला। अब हमने पढ़कर जाना कि वह बड़ी विकट है। यह सुधाकरजीकाही काम है कि उन्होंने उसका अर्थ समझा है। क्या अच्छा होता कि जो कुछ अर्थ वह समझे थे, दूसरोंको भी समझा देते। ऐसा करते तो पोथी बहुत सरल हो जाती और लोग उसका अर्थ समझकर सुधाकरजीका गुण गाते । पर वैसा अवसर नहीं मिला। वह कदाचित राह बतानेही चले होंगे, पर बता न सके, भुलाने लगे। तुलसीने जहां कोई बड़ा कृट दोहा लिखा है, सुधाकरजी महाराजने वहां महाकूट कुण्डलिया बनाई है। कहीं-कहीं तुलसीका दोहा सरल है, वहां भी सुधाकरजी टेढ़े चले हैं। दो-एक उदाहरण देते हैं- राम वाम दिसि जानको लम्बन दाहिनी ओर । ध्यान सकल कल्यानमय तुलसी सुरतर तोर ।। यह दोहा सरल है। इसका अर्थ भी सहजही समझमें आ जाता है। इसपर सुधाकरजीको कुण्डलिया सुनिये --- तुलसी सुरतर तोर तोरि में मोर कहानी । सेवहि अबहि सवेर वीर नत कारज हानी ।। वरनत है द्विजराज करत द्विजराज अहेरा । रसना रसना रहहि किये बिनु यहि तरु डरा !। दोहेमें 'सुरतरु तोर' का अर्थ लगानेमें जरा सोचना पड़ता है, पर कुण्डलियामें 'तोरि मैं मोर कहानी' 'रसना रसना' आदि लिखकर द्विजराजजीने इतना काम कर दिया है कि ऊपरका अर्थ पढ़नेवाला पांच-सात मिनट तक आपहीके अर्थको सोचता रहे।