अश्रुमती नाटक हैं कि गुणीके पास आकर अवगुण भी गुण बन जाते हैं। इससे यही कहना होगा कि गर्व, दुर्वचन, हठ, अप्रियवाद आदि दोषोंके शुभ दिन आये कि उनको एक गुणी पुरुषने ग्रहण किया! अब उनकी गिनती अवगुणोंमें नहीं, गुणोंमें होगी। भारतमित्र सन १६०६ ई० 'अश्रुमती' नाटक बङ्ग-भाषामें इस नामका एक नाटक है। यह छपकर बिकता भी है और साधारणतया नित्यके थियेटरोंमें खेला भी जाता है। इसपर इसके कर्ताका नाम भी छपा हुआ नहीं है, किन्तु इस पुस्तकके 'उत्सग- पत्र' में जिसके नाम पुस्तक उत्सर्ग की गई है, उसे ग्रन्थकार 'भाई रवि' कहकर सम्बोधन करता है। हमने इस नाटकके कर्ताका पता लगाया, तो जान पड़ा कि वह कलकत्तके प्रसिद्ध ठाकुर-घरानेके एक सज्जन हैं। उसी उत्सर्ग-पत्रमें जो तिथि दी है, उससे मालूम होता है कि इस पुस्तक- को बने हुए २२ साल हो गये और इस २२ वर्षके समयमें वह सात बार छप चुकी है। __२२ वर्षसे यह नाटक बङ्ग-देशमें मौजूद है। इस देशके प्रन्थकारों और आलोचना करनेवालोंकी दृष्टि इतने दिनोंमें भी इसपर नहीं पड़ी होगी, यह हमारी समझमें नहीं आता। फिर, हमने सुना है कि कितनी ही बार इस नाटकका खेल पबलिक-थियेटरोंमें हुआ है और यह भी सुनते हैं कि ठाकुर-घरानेके सज्जन जो अपने महलके भीतर निजके तौर पर नाटक खेला करते हैं, उसमें भी इस 'अश्रुमती' नाटकका अभिनय होता है। सुना है कि ठाकुर-घरानेके लोग इस नाटकके खेलनेके समय [ ५४१ ]
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