पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५५२

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हिन्दीमें आलोचना है। किन बातोंको द्विवेदीजी व्यक्तिगत चोट समझते हैं जरा सुनिये- _ "हमारा देहातीपन, हमारा संस्कृत श्लोकोंका लासानी उच्चारण, हमारा बहुत तरहकी बातोंको फांक जाना, हमारा संस्कृतका अद्वितीय ज्ञान- न हमारे शरीरसे कुछ सरोकार रखता है, न हमारे कामोंसे। सरोकार शायद रखता है आपके शरीरसे।” नहीं महाराज ! अप्रसन्न न हुजिये, वह सम्बन्ध रखता है आपकी लेख-प्रणालीसे। आप अपनी लिखी इन बातोंको फिर पढ़ लीजिये, इनमें आपपर व्यक्तिगत आक्षेप कुछ नहीं है, केवल आपकी लेख-प्रणालीपर नोक-झोक है। लासानी उच्चारणकी बाबत आप चाहें, तो कह सकते हैं कि उसका लेखसे कुछ सम्बन्ध नहीं, पर माफ कीजिये वह भी आपकी पढ़ने-लिखनेकी सीमासे बाहर नहीं है। पढ़ने-लिखनेको छोड़कर आपके किसी विशेष कामसे उसका सम्बन्ध नहीं है। (७) कुछ नमूने फरवरीको 'सरस्वती' आत्मारामके लेखोंका उत्तर देते हुए पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदोजीने जिस भाषा और जिन शब्दोंसे काम लिया है, उसके कुछ नमूने हम नीचे दिखा देते हैं। हम द्विवेदीजीके कहनेका बुरा मानकर वह सब नमूने पेश करना नहीं चाहते। केवल यह दिखाना चाहते हैं कि जो लोग सभ्यता और शिष्टताके आदर्श बनना चाहते हैं, वह जब कभी स्वयं सभ्यता और शिष्टतासे दूर हटने लगते हैं, तो कहां तक हट जाते हैं। शिष्टता द्विवेदीजी फरमाते हैं-“उदाहरणके लिये पण्डितजीके एक चेले [ ५३५ ]