पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५२८

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हिन्दीमें आलोचना अहा । अत्यन्त क्रोधमें भी यह धीरता, यह उदारता और यह सुविचार । तिसपर भी आपने अपनेही पथके पथिक आत्मारामसे इतनी नाराजी दिखाई ! उसे अपना साथी न बताकर दुश्मन बताया। जब आप जीते हैं और स्वयं अपने निकाले हुए मार्ग पर चलनेवाले आत्मारामसे सख्त बेजार हैं, तो कैसे समझते हैं कि हरिश्चन्द्र आपकी आलोचनासे रुष्ट न होते ? आप रुष्ट होते हैं, पर वह न होते कैसी अजीब बात है! __आपको उचित था कि आत्मारामको शत्रु न मानते। पर यदि वह वास्तवमें आपका शत्रु है, तो आप भी क्या उसके शत्रुही हैं ? क्या शत्रकी आलोचनाका कोई युक्तियुक्त उत्तर नहीं हो सकता ? शत्रुको केवल शत्रु कहकर उसकी युक्तियोंकी उपेक्षा करना तो आलोचकोंका धर्म नहीं है। मजा तो जबही है कि शत्रु अपनी कटूक्तिका भी ऐसा उत्तर सुने कि दांत खट्ट कराके भागे। यदि आपका शत्रु किसी औरकी कायामें घुसकर आप पर हमला करता है, तो करे । समझ लीजिये कि वह अपने चोलेको कमजोर समझता है। इसमें आपके घबरानेकी क्या बात है ? इसके लिये हर आदमीको कायामें अपने शत्रुको मत देखिये। उन लोगोंकी पैरवी मत कीजिये, जो हरेककी आत्माको दूसरेकी कायामें देखते हैं। उन्हें 'फिसानये अजाइब'की मलिकाका मेमना समझकर जाने दीजिये। ____“सरस्वती" का हमारे यहाँ बड़ा आदर है। इण्डियन प्रेसके मैनेजर स्वयं देख गये हैं कि 'सरस्वती' के वार्षिक फाइल 'भारतमित्र' प्रेसमें बहुत कीमती जिल्दोंमें बंधवाकर रखे जाते हैं। इससे यह कहना कि वह आँखोंमें खटकती है, हमारे लिये तो ठीक नहीं। ___ एक चिकने कागजकी उत्तम टाइपकी, बढ़िया तस्वीरों वाली ठीक समयपर निकलनेवाली हिन्दी मासिक पत्रिका किस हिन्दी-प्रेमीकी [ ५११ ]