पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५२७

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना ६ सालसे आपके साथ खुल्लमखुल्ला छेड़छाड़ करता आया, उसे अचानक आत्माराम बननेकी क्या जरूरत पड़ी ? अब यह आपसे क्यों भयभीत हुआ ? कुछ सबब इसका आप भी सोचिये। एक आत्मारामही क्या, जिसने जहाँसे इस विषयमें लेख लिखे हैं, उसीपर आपने बदगुमानी की है। सबके लेखोंपर आपने यही राय पास की है कि वह भारतमित्र-सम्पादकहीने लिखे हैं। यहां तक कि यदि कोई लेख दूसरेका लिखा मान भी लिया, तो उसकी भाषाही पर आपको शक हो गया। हमने आपको इतना शक्की न समझा था। जान पड़ता है जिस सज्जनने हिन्दी 'बंगवासी' में दिखानेको आपकी तरफदारी की और वास्तव में आपके लेखकी धूल उड़ाई और आपका उपहास किया, उसीके कल्पित वाक्य आपपर असर कर गये। उसीने पहले अपने लेखोंमें यह पट्टी आपको पढ़ाई कि आत्माराम भारतमित्र-सम्पादक है। भारतमित्र-सम्पादक आपसे पुरानी दुश्मनो रखता है। उसीके वश होकर आपकी हजो लिखता है । अनस्थिरताका 'अन' हिन्दी है । उसका संस्कृतसे सम्बन्ध नहीं। आश्चर्य है कि आपने यह सब बात मान ली। नहीं तो आपका सिद्धान्तही दूसरा है। फरवरीका लेख लिखते समय यद्यपि आप क्रोधान्ध हो गये हैं, ५७ सालमें कभी आपको इस प्रकार अधीर होते नहीं देखा जैसा इस लेखमें। तिसपर भो आप उस लेखमें बड़ी गम्भीरतासे एक लखनवी सजनको समझाते हैं- "आप चाहे ऐसी आलोचनाके जितना खिलाफ हों, पर हरिश्चन्द्र यदि होते तो वे जरा भी मुखालिफत न करते। क्योंकि उन्होंने खुद औरोंकी आलोचना की है ; समालोचनाका मार्ग उन्होंने हिन्दीमें निकाला है। अतएव यह कब सम्भव था कि अपनेही निकाले हए मार्गके मुसाफिरसे वे रुष्ट होते।" [ १० ]