पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५२१

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना में अपनी लिखी हुई आलोचनाओंको फिरसे पढ़ जायं, कदाचित एक दो आदमीही ऐसे मिलेंगे, जिनपर आपकी लेखनीने डक न चलाया हो। जो लोग इस समय आपकी हिमायतको खड़े हुए हैं, उनमें भी अधिक घायल निकलेंगे, -- दूसरोंकी तो बातही क्या है। ___ यह प्रश्न भी द्विवेदीजीसे किया जासकता है - क्या आप उन्हीं लोगोंकी पुस्तकों या लेखोंकी आलोचना करते हैं, जिनसे आपको ईषा- द्वष है और जिनकी कीर्तिको देखकर आपका जी जल रहा है ? अथवा आपके लेखों और पोथियों पर आलोचना करनेवालोंके नसीबमें यह कलंक लिखा गया है कि मारे ईर्षा-द्वषके उनका जी आप पर जल रहा है ? आप जब किसीकी आलोचना करने चलते हैं, तो संसारका सब ज्ञान आपकी रकाब पकड़े साथ-साथ दौड़ता है, और दूसरा आपकी बातपर कुछ कहे तो चट "ज्ञानलवदुर्विदग्ध" का पट्टा उसके माथेसे बांध दिया जाता है, इसका क्या कारण ? क्या इसके लिये भी मौ पचास सालसे जर्मनी-वर्मनीमें कहीं कोई नया विज्ञान उत्पन्न हुआ ? संसारमें एमा नियम चल नहीं सकता, कि द्विवेदीजी या उनके सदृश कोई व्यक्ति जिसपर चाहे जो कुछ नुकताचीनी कर जाय और वह खूब ठीक और सच्ची समझी जाय। किन्तु दूसरा कोई उस नुकताचीनीकी भी कुछ नुकताचोनी करे ( असल चीजोंकी वात जाने दीजिये ) तो वह अल्पज्ञ और ईर्षा करनेवाला समझा जाय । यदि ऐसा नियम कुछ देरके लिये चल भी जाय, तो स्थिर नहीं रह सकता। एक बुद्धिमानका कथन है कि मनुष्यका हृदय दर्पण है। उसीके विचारोंका प्रतिविम्ब उसमें पड़ता है। मनुष्यको चाहिये कि जो बात स्वयं पसन्द नहीं करता है, उसे दूसरोंके लिये भी पसंद न करे। हम कभी नहीं समझते कि द्विवेदीजी उन लोगोंके मुंहसे अपनेको अल्पज्ञ और द्वषी सुनना पसंद करेंगे, जिनकी वह आलोचना करते हैं। एक आलोचकका दूसरे [ ५०४ ]