पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५१०

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आत्मारामीय टिप्पण (२) "अपने तौर पर !” हमारे द्विवेदीजो दूसरोंके मालका उपयोग “अपने तौर पर” करना खूब जानते हैं। मेक्समूलर आदिके भाषा विज्ञानके पढ़नेसे जो संस्कार आपके चित्तपर हुआ था, उसे “आप अपने तौर पर” लिखनेकी बात फरवरीमें कह चुके थे। मार्चमें फिर वही “तौर" चला। दो सज्जनोंने आपके पास 'प्रतापचरित' लिख भेजा। आप ताकमें थे ही, आपने उस “सामग्रीका उपयोग अपने तौर पर" कर डाला। धीरे-धीरे आपका "तौर" चंगेज और तैमूरका “तौरा" हुआ जाता है ! कहते हैं कि आपके उक्त लेखसे हिन्दीके कवि और सुलेखकोंकी पसलियां फड़क उठीं। स्वर्गमें प्रतापकी आत्मा तड़प गई। कलकत्ते में बनियोंकी गद्दी-गद्दी और साहिबोंके आफिस-आफिसके कन्नौजिया दादा कह रहे हैं कि द्विवेदीजीने प्रतापकी जीवनी लिखकर हमारी जातिका एक कलंक धो बहाया। __इस ऊंचे दरजेके लेखकी अधिक प्रशंसा तो इस समय हो नहीं सकती। एक चावलसे ही बिलफैल पाठकोंको बटलोई भरका हाल जानना होगा। द्विवेदीजी महाराजने उस लेखमें प्रतापके रूप-रवैयेका एक विलक्षण चित्र खंच कर प्रतापकी ओर इशारा करके लिखा है-"आप अपने रूप आदिको तारीफमें कहते हैं- कौसिक कुल अवतंस श्री मिश्र सङ्कटादीन। जिन निज बुधि विद्याविभव वंश प्रशंसित कीन ॥१॥ [ ४९३ ]