भाषाकी अनस्थिरता "शेर कहना और ना लिखनी' की जगह लखनऊवाले शेर कहना और नम्र लिखना' कहेंगे। 'लिखनी भी आती है' की जगह 'लिखना भी आती है' कहेंगे। ४ जनवरीके 'अवधपंच' में लिखा है-'पुरगमसदा कुछ ऐसी खफा हुई कि फिर न आना थी न आई" दिल्लीवाले ऐसे मौकेपर लिखते हैं-* * * “न आनी थी न आई।" ऊपर कह चुके कि दोनों प्रान्तोंवाले अपने अपने ढङ्गपर लिखते हैं और बोलते हैं। दोनोंहीका लिखना और बोलना ठीक समझा जाता है। लखनऊवालोंके लख दिल्लीक अखबारोंमें छपते हैं तो क्रियाका ढङ्ग लखनवी रहता है और दिल्लोवाले लखनऊके अखबारोंमें लिख तो उनका ढङ्ग कायम रहता है। क्रियाका यह ढङ्ग दोनों प्रान्तोंमें बद्धमूल होगया है। आधुनिक हिन्दोके लेखकोंने अपने यहां भी क्रिया आदिका ढङ्ग उर्दू के ढङ्ग परही रखा है, इससे यह चाल भी हिन्दीमें चली आई है। इससे किसीको कुछ तकलीफ नहीं है । बोलनेवाले बोलते हैं। अपरिचित लोग पुस्तकं पढ़कर जान लेते हैं। हिन्दीके लेखक अधिक दिल्लीकी चालपर चलते हैं। केवल भारतमित्रमें कुछ लखनऊको पैरवी होती है। पर दिल्लीकी चालपर चलनेवालोंको 'भारतमित्र' किसी प्रकारका दोष नहीं लगाता है। जो लोग जिस ढङ्गपर लिखत हैं, 'भारतमित्र' उनके लेख उसी प्रकार छाप देता है, इसलाहके लिये हाथ नहीं बढ़ाता । 'हमें' 'जिन्हें' 'सक' 'कर' आदि द्विवेदीजी बहुत लिखते हैं और हम देखते हैं कि, जो लोग उनकी 'सरस्वती' में इन शब्दोंका शुद्ध उच्चारण अर्थात् हमें' जिन्हें सक' कर' आदि लिखते हैं उनकी भी आप इसलाह कर डालते हैं। इसको पढ़े लिखे आदमी अन्यायही नहीं, असभ्यता समझते हैं। जिस ढङ्गसे इन शब्दोंको द्विवेदीजी लिखते हैं उस ढङ्गसे कोई नहीं बोलता, शायद उनके देशमें बोलते होंगे। लेकिन इसके लिये सारा हिन्दुस्थान अपनी जबान खराब नहीं करेगा । पञ्जाब, युक्तप्रदेश, अवध, [ ४८३ ]
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